तृतीय दिवस दिनांक 19-09-2018
श्री मोहन भागवत जी
प्रश्न- हिन्दुत्व के संबंध में।
क्या हिन्दुत्व को हिन्दुईज्म कहा जा सकता है?
देश में अन्य मत पंथों के साथ हिन्दुत्व का तालमेल कैसे संभव है?
क्या जनजातीय समाज भी हिन्दू है?
उत्तर - हिन्दुत्व, हिन्दूनेस, हिन्दुईज्म ये गलत शब्द हैं क्योंकि ईजम एक बंद चीज मानी जाती है। ये कोई ईजम नहीं है, यह एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है। गांधी जी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिन्दुत्व है। राधाकृष्ण जी का एक बहुत सुंदर कोट है, मेरे पास नहीं है इसलिए मैं नहीं बताऊँगा। लेकिन एक उसका चरण है कि हिन्दुत्व एक प्रोसेस है। सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। मोस्ट डायनामिक है और उसमें सबका योगदान है जो भारत में हो गए विचारक। इसलिए हिन्दुत्व को हिन्दुईज्म नहीं कहना चाहिए। ऐसा मेरा मानना है और अन्य मत पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाली एकमात्र विचारधारा, ये भारत की विचारधारा है, हिन्दुत्व की विचारधारा। क्योंकि तालमेल का आधार मूल एकत्व, प्रकार विविध है और विविध होना आवश्यम्भावी है। क्योंकि प्रकृति विविधता को लेकर चलती है, विविधता ये भेद नहीं है, विविधता ये साज-सज्जा है, प्रकृति का शृंगार है, ऐसा संदेश देने वाला और संदेश यानी थ्योराइजेशन के आधार पर नहीं अनुभूति के आधार पर देने वाला एकमात्र देश हमारा देश है। और इसलिए हिन्दुत्व ही है जो सबके तालमेल का आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिन्दू है। कल मैंने जिस राष्ट्रीयता का वर्णन किया। हमारी कल्पना का। उस अर्थ में जनजातीय समाज भी हिन्दू है। भारत में रहने वाले सब लोग हिन्दू ही हैं। पहचान की दृष्टि से, राष्ट्रीयता की दृष्टि से। ये कुछ लोग जानते हैं, गर्व से कहते हैं, कुछ लोग जानते हैं, गर्व नहीं अनुभवता है, इतना कहते हैं। कुछ लोग जानते हैं लेकिन अन्य किसी बात के कारण कहने में संकोच करते हैं और कुछ लोग नहीं जानते हैं इसलिए नहीं कहते हैं।
मैं तो कहता हूं कि भारत कि ये जो प्राचीन विचारधारा अब तक चली आ रही है और अन्यान्य रूपों में सर्वत्र प्रकट हो गई है। उन रूपों में इतनी विविधता है कि कई रूप एक-दूसरे के विरोधी भी लगते हैं। लेकिन वो एक समान मूल्यबोध लेकर चलने वाली विचारधारा है। उस मूल्यबोध का प्रारंभ हमारे जनजातियों के बंधुओं के जीवन से और कृषकों के जीवन से प्रारंभ हुआ है। इस अर्थ में तो ये हमारे पूर्वज हैं। ऐसे ही उनको देखना चाहिए और उनकी सारी स्थितियों का, समस्याओं का विचार करना चाहिए। ये सब अपने हैं। भारत में कोई पराया नहीं, परायापन हमने निर्माण किया है। हमारी परंपरा ने नहीं, वो तो एकता ही सिखाती है।
प्रश्न- जातीय व्यवस्था में समरसता।
पूरे हिन्दू समाज में समरसता के लिए रोटी-बेटी का संबंध होना चाहिए। संघ इसके लिए क्या करेगा?
अंतरजातीय विवाह तथा अंतरधार्मिक विवाह के संबंध में संघ क्या सोचता है?
क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हिन्दू समाज जातियों में नहीं बैठेगा।
उत्तर - रोटी-बेटी व्यवहार का हम पूरा समर्थन करते हैं। लेकिन जब इसको करने जाते हैं तो रोटी व्यवहार तो आसान है। हम आसानी से कर सकते हैं और मजबूरन बहुत लोग आजकल कर भी रहे हैं, वो मन से होना चाहिए। इसकी आवश्यकता है समझदारी ठीक करनी पड़ेगी। बेटी व्यवहार थोड़ा कठिन इसलिए है कि उसमें केवल सामाजिक समरसता का विचार नहीं, दो परिवारों के मिलन का भी विचार है। वर-वधू के भी मैचिंग का विचार है। ये सब देख कर हम उसका समर्थन करते हैं। महाराष्ट्र में पहला 1942 में अंतरजातीय विवाह हुआ। पहला ही था और अच्छे सुशिक्षित लोगों का था इसलिए उसकी प्रसिद्धी हुई। उस समय उसके लिए जो शुभ संदेश आए थे, उसमें पूजनीय डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर का भी संदेश था और पूजनीय श्री गुरुजी का भी संदेश था और गुरुजी ने उस संदेश में कहा था कि आपके विवाह का कारण केवल शारीरिक आकर्षण नहीं है, आप ये भी बताना चाह रहे हैं कि समाज में हम सब एक हैं, इसलिए आप विवाह कर रहे हैं। मैं आपका इस बात के लिए अभिनंदन करता हूं। और आपको दाम्पत्य जीवन की सब प्रकार की शुभकामनाएं देता हूं।
ये मानव, मानव में भेद नहीं करना, रुचि और अरुचि प्रत्येक की अपनी होती है। पूरा जीवन साथ में चलाना है। वो ठीक से चल सकता है कि नहीं इतना देखना चाहिए। तो बेटी व्यवहार के लिए भी हमारा समर्थन है। मैं तो कभी-कभी कहता हूं कि भारत में अंतरजातीय विवाहों की गणना करके असर परसेंटेज निकाला जाए तो शायद आपको सबसे ज्यादा परसेंटेज संघ के स्वयंसेवकों का मिलेगा, ऐसा करने वाले। इस रोटी-बेटी व्यवहार का चलन बढ़ाने से, यानी केवल विवाह और केवल साथ बैठकर खाने की बात नहीं। जीवन के हर कृति में समाज को अभैद दृष्टि से देखना, मन से उसको निकालना। ये जब करते हैं तो हिन्दु समाज जातियों में नहीं बटेगा। इसको हम सुनिश्चित कर सकते हैं। वो बटेगा नहीं ये मैं जानता हूं इसलिए कि प्रत्येक हिन्दू की जो आत्मा है वो आत्मा एकता में ही विश्वास करती है और मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि आत्मा से अलग होकर ज्यादा चल नहीं सकता। तो वो आत्मा जरूर देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक नया शरीर धारण करेगी। इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है और इसलिए हम लोग सारे हिन्दुओं को एकत्र करने का प्रयास कर ही रहे हैं। इस विश्वास के साथ ही कर रहे हैं। नहीं तो जिस जमाने में संघ शुरू हुआ, उस जमाने में किसी का विश्वास नहीं था ऐसे हो सकता है। बहुत लोगों ने डॉ. हेडगेवार को कहा कि कंधे पर पांचवा न हो तब तक जिस समाज के चार लोग एक दिशा में नहीं चल सकते। उस समाज को कैसे एकत्रित करेंगे आप। लेकिन आज आप देखते हैं कि कर ही रहे हैं। तो इसलिए जरूर होगा। ये किया जा सकता है, हमने करके दिखाया गया है और ये किया जाना चाहिए और हम करेंगे।
प्रश्न- संघ एवं जाति व्यवस्था
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था को संघ कैसे देखता है?
संघ में अनुसूचित, जनजातियों का कैसा प्रतिनिधित्व और स्थान है?
घुमंतु और विमुक्त जातियों के लिए क्या संघ ने कोई पहल की है?
उत्तर - जाति व्यवस्था कहते हैं, उसमें गलती होती है। आज व्यवस्था कहां है वो अव्यवस्था है। कभी ये जाति व्यवस्था रही होगी, वो उपयुक्त रही होगी, नहीं रही होगी। आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है वो जाने वाली है। जाने के लिए प्रयास करेंगे तो पक्की होगी। उसको भगाने के लिए प्रयास करने के बजाय जो आना चाहिए उसके लिए हम प्रयास करें तो ज्यादा अच्छा होगा। अंधेरे को लाठी मार-मार कर भगाएंगे अंधेरा नहीं जाएगा। एक दीपक जलाओ वो भाग जाएगा। एक बड़ी लाईन खींचो तो सारे भेद विलुप्त हो जाएंगे। यही संघ कर रहा है और हम मानते हैं कि सामाजिक विषमता का पोषण करने वाली सभी बातें, ‘लॉक स्टॉक एंड बैरल’ बाहर जानी चाहिए। हम विषमता में विश्वास नहीं करते। ये प्रत्यक्ष आचरण में आने वाली अफरा-तफरी है लेकिन वो करनी ही पड़ेगी। और उस पर हमने कदम बढ़ाया। संघ का काम जैसे-जैसे बढ़ेगा और सर्वत्र पहुंचेगा, वैसे-वैसे संघ के कार्यकर्ताओं में अब ऊपर जाति का हमने निश्चित किया और अनुसूचित जाति के कितने लोग हैं हम पूछ रहे हैं, इसलिए उत्तर देना जरा कठिन हो रहा है। लेकिन आज की दृष्टि से देखें तो जिनको हम अनुसूचित जाति, जनजाति के मानते हैं उन बंधुओं का भी प्रमाण दिखने लगेगा। हम संघ में पूछते नहीं।
एक बार मैं सरकार्यवाह चुना गया, पहली बार। हमारे सहसरकार्यवाह सुरेश जी सोनी, उनकी नियुक्ति हो गई। तो मीडिया ने चलाया कि ये भागवत गुट की विजय हो गई लेकिन ओ.बी.सी. को रिप्रेजेंटेशन देना है इसलिए सोनी जी को रखा है। तो मैंने सोनी जी को पूछा कि सोनी जी आप ओ.बी.सी. में आते हैं क्या? तो उन्होंने थोड़ा-सा स्माइल कर दिया और उत्तर नहीं दिया। तो अभी-भी सोनी जी कहां आते हैं मैं नहीं जानता। ये संघ में वातावरण है। तो अगर हम इसी ढंग से बढ़ते हैं तो ये परिवर्तन होता है। नागपुर में, मैं पढ़ रहा था, विद्यार्थी था। उस समय नागपुर संघ के लगभग सब अधिकारी एक ही जाति के थे, ब्राम्हण जाति के थे। लेकिन मैं नागपुर का प्रचारक बनकर 80 के दशक में जब वापस आया तो जगह-जगह जितनी बस्तियां थीं उस प्रकार की कार्यकारिणी बनी थी। इसलिए बनी थी कि हमारी शाखाएं बढ़ीं, हम उस बस्ती में पहुंचे, हमने काम बढ़ाया, स्वाभाविक उसमें से कार्यकर्ता तैयार हुए, वो आ गए। कोटा सिस्टम करेंगे तो जाति का भान रहेगा। सहज प्रक्रिया से सबको लाएंगे तो फिर जात नहीं रहेगी। सहज प्रक्रिया लाते समय लाने वालों के मन में ये भान रहना चाहिए क्योंकि स्वाभाविक प्रवृत्ति मनुष्य की अपने जैसे को पकड़ने की होती है। हमको अपने जैसे को नहीं पकड़ना है, सबको पकड़ना है। ये ध्यान रखकर अगर काम चलता है तो ऐसा होता है। 50 के दशक में आपको ब्राम्हण ही नजर आते थे। क्योंकि आप पूछते हो तो थोड़ा बहुत ध्यान में आता है कि जोन स्तर पर, प्रांत और प्रांत के ऊपर जोन, जोन स्तर पर सभी जातियों के कार्यकर्ता आते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर भी अभी एक ही जाति नहीं रही। वो बढ़ता जाएगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन जिसमें काम करने वालों में सभी जाति वर्गों का समावेश है। ऐसी कार्यकारिणी आपको उस समय दिखने लगेगी। मैंने कहा यात्रा लम्बी है लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ रहे हैं ये महत्व की बात है।
घुमंतु जातियों के लिए हमने काम किया है। मैं मानता हूं कि स्वतंत्रता के बाद उनकी दखल लेकर काम करने वाले हम पहले होंगे। महाराष्ट्र में ये काम शुरू हुआ। और उसके चलते बहुत सारी बातें हुईं। उनको स्थिर करना, उनके बच्चों को शिक्षा में भेजना, शिक्षा प्राप्त करके वो समाज में आगे बढ़ें इसको देखना। उनकी जो परम्परा से आने वाली रूढ़ियां कुरीतियां हैं उसको हटाने का भाव उनके ही मन में उत्पन्न करके उसको गृहस्थ करना आदि सारी बातें करते-करते कार्य का परिणाम ऐसा हो गया कि पहले महाराष्ट्र सरकार ने और केन्द्र सरकार ने भी उनके लिए यानी अलग कमीशन बनाया है और वो पायलट प्रोजेक्ट हमारा चला है। यमगरवाडी नाम का स्थान है। वहां उसकी केन्द्रीयभूत जानकारी और कार्य का प्राथमिक स्वरूप आपको देखने को मिलेगा। जिनको जाना है जरूर जाइए। ये जो विदेशों में यात्रा करते हैं आप मनोरंजन के लिए, एक बार वहां की भी यात्रा कीजिए। कितने पापड़ बेलकर कार्यकर्ताओं ने इस समाज को बराबरी में लाने का प्रयास चलाया है। ये आप जान सकेंगे। उसको देखिए उस कार्य को अब अखिल भारत में जितनी घुमंतु विमुक्त जातियां है, उनके लिए बढ़ाने का भी हमने उपक्रम पिछले वर्ष से प्रारंभ किया है और हम उनके लिए भी काम करेंगे।
प्रश्न- शिक्षा में भारतीय मूल्य।
शिक्षा में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय वेद, रामायण, महाभारत आदि का शिक्षा में समावेश सहशिक्षा आदि विषयों पर संघ की क्या राय है?
उच्च शिक्षा का स्तर लगातार घर रहा है। भविष्य के भारत का निर्माण कैसे होगा?
उत्तर- देखिए धर्मपाल जी का ग्रन्थ आप पढ़ेंगे तो आपको ध्यान में आयेगा कि अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने जब सर्वे किया तो उनको ध्यान में आया कि परम्परा से हमारी शिक्षा पद्धति ज्यादा प्रभावी अधिक लोगों को साक्षर बनाने वाली, मनुष्य बनाने वाली और अपना जीवन चलाने के लिए योग्य बनाने वाली थी। वो अपने देश में ले गए और ऐसा सब कुछ एक साथ न कर सकने वाली उनकी पद्धतियां उन्होंने लाईं। ये इतिहास है। और इसलिए आज की दुनियां में आधुनिक शिक्षा प्रणाली में जो लेने लायक है वो लेते हुए अपनी परम्परा से जो लेना है वो लेकर हमको एक नई शिक्षा नीति बनानी चाहिए। आशा करता हूं कि नई शिक्षा नीति आने को हुई है। उसमें ये सब बातें होंगी।
अपने देश का विचारधन उसमें से मिलना चाहिए। चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शानी च जैनागमस्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरा (यानी संत वाणी) ऐषद ज्ञाननिधि श्रेष्ठ। ये शिक्षा भारत के लोगों को मिलना ही चाहिए। सबको मिलना चाहिए। और भी सम्प्रदाय हैं जो बाहर से आये हैं लेकिन उसकी अच्छी खासी संख्या है उसमें भी जो मूल्यबोध है वह सिखाना चाहिए। रिलीजन की शिक्षा भले हम न दें लेकिन दृष्टि मूल्यबोध इस दृष्टि से और उसमें से निकलने वाले संस्कारों की दृष्टि से इन सबका अध्ययन पठन पाठन हमारी शिक्षा पद्धति में देश की शिक्षा, राष्ट्रीय शिक्षा, स्नातक तक अनिवार्य है। ऐसा संघ का मत है। शिक्षा का स्तर घट रहा है ऐसा हम कहते हैं शिक्षा नहीं शिक्षा का स्तर नहीं घटता। शिक्षा देने वालों का स्तर घटता है। लेने वालों का घटता है। छात्र शिक्षा के लिए आता है कि अपने जीवन की कमाई पर दृष्टि रखकर उसके लिए आवश्यक डिग्री के लिए आता है। उसको हम घर में कैसा तैयार करते हैं। मुझे एक सज्जन पूना में मिले। सज्जन यानी कृतित्व सम्पन्न व्यक्ति है। पढ़ेगा लिखेगा नहीं इसलिये शिक्षा छोड़कर उनके पिताजी ने उनको पूना भेज दिया सातारा से। और वहां वो प्रिंटिंग प्रेस का काम उसमें करने लगे। करते करते उनके ध्यान में आया तो उन्होंने अपने एडवरटाइज एजेंसी चलाई और साथ-साथ शिक्षा भी, तो ग्रेजुएशन तक पूरी कर ली। और आज उनकी स्थिति यह है कि एक अव्वल एडवरटायजिंग फर्म उनकी है। और महाराष्ट्र सरकार को भी किसी गांव का सत्य डाटा चाहिए तो उनके पास जाते हैं। प्रदीप लोखंडे उनका नाम है। उन्होंने मुझे कहा कि भागवत् जी आप लोगों में भाषण देते हो, एक संदेश हमारा पहुंचाओ। तो मैंने कहा क्या संदेश है। उन्होंने कहा हर व्यक्ति को लगता है कि अपना बेटा आर्किटेक्ट, इंजीनियर, डॉक्टर ऐसे ही बने। अरे हर लड़का ऐसा नहीं बन सकता। हर एक की अपनी क्षमता भी होती है रुचि भी होती है। उसको जो अच्छा लगता है उसको करने को मिले और जो वह करे वो उत्कृष्ट करे। तिलक जी के लड़के ने कहा कि मुझे यह यह पढ़ने की इच्छा है तो तिलक जी ने उसको पत्र लिखा। कि जीवन में क्या पढ़ना है यह तुम विचार करो। तुम अगर कहते हो कि मैं जूते सिलाने का व्यवसाय करता हूं तो मुझे चलेगा। लेकिन ध्यान रखो कि तुम्हारा सिलाया हुआ जूता इतना उत्कृष्ट होना चाहिए कि पूना शहर का हर आदमी कहे कि जूता खरीदना है तो तिलकजी के बेटे से खरीदना है। अब जो मैं सीख रहा हूं वो मैं उत्कृष्ट करूंगा उत्तम करूंगा। उसकी उत्कृष्टता में मेरी प्रतिष्ठा है। ये भावना भरकर हम छात्रों को भेजते हैं क्या स्कूल में अपने घर के लड़कों को। हम तो उनको ज्यादा कमाओ, कैसा भी कमाओ लेकिन कमाओ। ये मंत्र देकर भेजेंगे तो शिक्षा कितनी भी अच्छी होगी वो लेंगे नहीं उसको। तो उनके पिताजी ने कहा कि दूसरा कुछ लेना है। शिक्षक को ये भान है क्या कि मैं अपने देश के बच्चों का भविष्य गढ़ रहा हूं क्या। एक एक व्यक्ति को मैं गढ़ रहा हूं। अनेक महापुरुष अपने प्राथमिक विद्यालय के, माध्यमिक विद्यालय के, कॉलेज के शिक्षकों को याद करते हैं। क्यों करते हैं। उनके जीवन में कुछ कॉन्ट्रिब्यूशन है। ऐसा उनके जीवन में हमको कांट्रीब्यूट करना है ये देने वाला शिक्षक है क्या और शिक्षक को अपने विषय का ध्यान ठीक है क्या? शिक्षकों के स्तर का एक प्रश्न है। और कोर्स कंटेंट में भी ये प्रश्न है। कई बार ऐसा होता है कि हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों से लोग डिग्री लेकर तो निकलते हैं। लेकिन एम्प्लायबल नहीं रहते हैं। डिग्रियां बहुत मिल रहीं, उच्च शिक्षा के संस्थान चल रहे हैं। लेकिन रिसर्च कम हो रहा है हमारे यहां। विषय को पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स, शिक्षक कम हो रहे हैं। तो इस दृष्टि से एक सर्वांगिण विचार करके सभी स्तरों की शिक्षा का एक अच्छा मॉडल हमको खड़ा करना पड़ेगा। इसलिए शिक्षा नीति का आमूलचूल विचार हो और आवश्यक परिवर्तन इसमें किया जाए, ये संघ बहुत सालों से कह रहा है। और इसके लिए जो कमीशन नियुक्त किए गए हैं, उन सब कमीशनों के रिपोर्ट भी ऐसी है। अब आशा करते हैं कि नई शिक्षा नीति पर इस सारी बातों का अंर्तभाव होगा। लेकिन एक और बात है अपने देश की। अधिक शिक्षा, निजी हाथों में है, सरकार के पास नहीं है। और उस निजि क्षेत्र में बहुत अच्छे-अच्छे प्रयोग भी चल रहे हैं। यहां दिल्ली में ही एक साल पहले एक सम्मेलन हुआ था। ऐसे प्रयोग करने वालों का। साढ़े तीन सौ के ऊपर भारत के विभिन्न स्थानों से, अलग-अलग प्रांतों से लोग आए थे और दे हैव डन मिरेकल्स। नीति जब आयेगी, आयेगी लागू होगी तब होगी उसकी राह देखने की आवश्यकता नहीं। शिक्षा संस्थानों में काम करने वाले लोग अपनी अधिकार मर्यादा में प्रयोग करके शिक्षा का स्तर ऊँचा उठा सकते हैं। ऐसा हुआ तो फिर सरकारी नीति भी उसका अनुकरण करेगी। ऐसी स्थितियां आ जाएंगी। इसलिए हमको सारा कुछ सरकार के सर पर न डालते हुए हमको भी अपने-अपने क्षेत्र में इसका प्रयास करना चाहिए।
प्रश्न- भाषा को लेकर भी कुछ जिज्ञासाएं प्राप्त हुई हैं।
नीति नियामक संस्थाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व दिखाई देता है। संघ का भारतीय भाषाओं और हिन्दी के प्रति क्या विचार है?
संस्कृत के विद्यालय भी घट रहे हैं। और इसे महत्व भी नहीं दिया जाता। संघ इस स्थिति को कैसे देखता है? ,
हिन्दी पूरे देश की भाषा कब बनेगी। क्या संस्कृत को हिन्दी से अधिक वरीयता नहीं दी जानी चाहिए।
उत्तर - अब ये जो अंग्रेजी के प्रभुत्व की बात है वो नीति में यानी संस्था में कहा वो तो हमारे मन में है। आज ये सामान्य अनुभव है कि भारत का उच्चभ्रू वर्ग भारतीय भाषाओं में जो बोल सकता है, हिन्दी भी जानते हैं दोनों, लेकिन मिलते हैं तो अंग्रेजी में बात करते हैं। तो हम अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करें। भाषा भाव की वाहक होती है, संस्कृति की वाहक होती है। और इसलिए भाषाओं का रहना ये अनिवार्य बात है मनुष्य जाति के विकास के लिए। अपनी भाषा का पूरा ज्ञान हो, किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं। अंग्रेजी हटाओ नहीं, अंग्रेजी रखों, यथास्थान रखो। अंग्रेजी का एक हौआ जो हमारे मन पर है उसको निकालना चाहिए। इंटरनेशनल लैंग्वेज हमेंशा कहते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है कि लोगों में अगर हम बात करते हैं तो यूरोप के देशों में दो भारतीय मिलने के बाद अंग्रेजी में बात करेंगे तो सबको समझ में नहीं आएगी, उनको भारतीय भाषाओं का प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि जहां-जहां अंग्रेजों का प्रभुत्व रहा ऐसे देशों में अंग्रेजी का एक स्थान है। अमेरिका भी अंग्रेजी बोलती है लेकिन वो कहती है ब्रिटिश अंग्रेजी से हमारी अंग्रेजी अलग है। स्पैलिंग तक सब अलग-अलग हैं। फ्रांस में जाएंगे फ्रेंच चलेगी। इसराइल में आपको पढ़ने जाना है तो हिब्रू पढ़कर जाना पड़ेगा। राशिया में जाना है तो रशियन सीख कर जाना पड़ेगा। चीन, जापान सब अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग सब अपनी-अपनी बातों में करते हैं। उन्होंने प्रयासपूर्वक इसको किया है। हमको ये प्रयास करने पड़ेंगे। जितना हम स्वभाषा में काम चलाएंगे और सबसे समृद्ध भाषाएं हमारे पास हैं। हम ये कर सकते हैं, हम करने को हो जाएं तो ये हो जाएगा। अंग्रेजी से हमारी कोई शत्रुता नहीं है। उत्तम अंग्रेजी बोलने वाले चाहिए। और दुनियां में भी अपने अंग्रेजी व्यक्तित्व की छाप बना सकते हैं ऐसे अंग्रेजी बोलने वाले लोग हमारे देश के भी होने चाहिए। भाषा के नाते किसी भाषा से शत्रुता हम नहीं करते, लेकिन देश की उन्नति के नाते हमारी मातृभाषा में शिक्षा हो इसकी आवश्यकता है। फिर आता है कि हमारी तो अनेक भाषाएं है। एक भाषा हमारी क्यों नहीं है? तो किसी एक भारतीय भाषा को हम सीखे। इसका मानस हमको बनाना पड़ेगा। हिन्दी की बात स्वाभाविक रूप से चली है, पुराने समय से चली है। अधिक लोग हिन्दी बोलते हैं इसलिए चली है। लेकिन ये मन बनाना पड़ेगा। कानून बनाने से नहीं होगा, थोपने से नहीं होगा। आखिर एक भाषा की बात हम क्यों कर रहे हैं इसलिए हमको देश को जोड़ना है। एक भाषा बनाने से अगर देश में यूरोप खड़ा होता है आपस में कटुता बढ़ती है तो हमको तो यह सोचना चाहिए कि मन हम कैसा बनाएं। मेरा अनुभव ऐसा कहता है, हिन्दी ठीक है कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन हिन्दी में काम करना पड़ता देश में अधिकांश भाग में इसलिए अन्य प्रांतों के लिए बहुत से लोग हिन्दी सीख रहे हैं, हिन्दी सीखते हैं। हिन्दी प्रांतों के लोगों का हिन्दी में चल जाता है, इसलिए दूसरी भाषा नहीं सीखते। क्यों न हिन्दी बोलने वाले लोगों ने भी दूसरे किसी प्रांत की एक भाषा को सीखना चाहिए। तो ये मन मिलाप जल्दी होगा, हमारी एक राष्ट्र भाषा और उसमें सारा कारोबार, ये काम जल्द ही हो जायेगी। ये करने की आवश्यकता है।
संस्कृत के विद्यालय घट रहे हैं और महत्व नहीं दिया जा रहा है, कौन नहीं देता? हम महत्व नहीं देते इसलिए सरकार भी नहीं देती। अगर हमारा आग्रह रहे कि अपनी परम्परा का सारा साहित्य लगभग संस्कृत में है। तो हम संस्कृत सीखें, हमारे बच्चे सीखें। कम से कम बोलचाल कर सकें इतना सीखें। इस दिशा में लगे हैं संघ के स्वयंसेवक। संस्कृत के प्रचार-प्रसार के दो-तीन काम चलते हैं। अच्छे पले-बढ़ रहे हैं। लेकिन ये अगर हमारा मानस बने तो अपनी विरासत का अध्ययन भी ठीक से हो सकेगा और अपनी भी कोई भाषा है और वो इतनी श्रेष्ठ भाषा है कि संगणक के सर्वाधिक उपयोग वही भाषा, ये सारी बातें पता चलेंगी। ये गौरव बनता है, तो समाज में उसका चलन बढ़ता है। चलन बढ़ता है तो विद्यालय भी फिर से खुल जाते हैं। पढ़ाने वाले भी मिल जाते हैं नीतियों को भी समाज का मानस प्रभावित करता है। ये काम करने की बहुत जरूरत है तो हम करते नहीं हैं और कोई करे ऐसा टिकाने का विचार करते हैं, फिर कभी होने वाला नहीं है। तो और फिर वरीयता का प्रश्न है, ये वरीयता प्रश्न गलत है। भारत की सारी भाषाएं मेरी भाषा है। और जहां मैं रहता हूं वहां की भाषा बोलता हूं। ये होना चाहिए। अपनी मातृभाषा पूरी आनी चाहिए। जहां में रहता हूं वहां की भाषा आत्मसात करनी चाहिए और पूरे भारत की एक भाषा तो हम बनाएंगे। वो श्रेष्ठ है इसलिए नहीं, वो सर्वाधिक उपयुक्त है आज के समय में इसलिए बनाएंगे। उसको भी सीखना चाहिए और फिर आपकी रुचि है। आवश्यकता है। तो कोई भी विदेश की भाषा सीखिए उसमें विदेशी लोगों से ज्यादा प्रवीण बनिये। उसमें भारत का गौरव है।
प्रश्न- महिला और संघ का दृष्टिकोण।
लड़कियों व महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संघ की क्या दृष्टि है। संघ ने इस दिशा में क्या-कुछ किया है? आखिर अपराधियों में कानून का डर क्यों नहीं है?
उत्तर - लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा। ये सुनिश्चित करने के लिए दो-तीन बातें करनी पड़ेंगी। पुराने जमाने में जब घर के अंदर महिलाओं का बंद रहना निश्चित रहता था तब उसकी जिम्मेदारी परिवार पर रहती थी। लेकिन अब महिलाएं भी पुरूषों की बराबरी से बाहर आकर कर्तृत्व दिखा रही हैं और दिखाना चाहिए उन्होंने। तो उनको अपनी सुरक्षा के लिए भी सजग और सक्षम बनाना पड़ेगा। इसलिए किशोर आयु के लड़के और लड़कीयां दोनों का प्रशिक्षण करना पड़ेगा। किशोरी विकास, किशोर विकास। ये काम संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं क्योंकि महिला असुरक्षित कब हो जाती है, जब पुरूष उसकी ओर देखने की अपनी दृष्टि को बदलता है। इस पर बड़ी चर्चाएं चली हैं तो एक मीडिया की पत्रकार महिला बोल रही थी। मैं सुन रहा था। जब सजा हो गई थी, बलात्कारियों को कड़ी सजा हो गई थी सुप्रीम कोर्ट से। उसकी चर्चा चल रही थी। मैं बैठा था तो वो महिला कह रही थी कि केवल अपराधियों को सजा होने से काम नहीं चलता। मूल समस्या यह है महिलाओं को देखने की पुरुष की दृष्टि बदलनी पड़ेगी। और ये दृष्टि हमारी परम्परा में है। मातृवत परदारेषु। अपनी ब्याहता पत्नी छोड़कर बाकी सबको माता के रूप में देखना। ये अपना आदर्श है। उन संस्कारों को पुरुषों में भी जगाना पड़ेगा। इसलिए किशोर और किशोरी विकास का क्रम चले और महिलाओं आत्मसंरक्षण की कला सिखाने वाले क्रम भी बढ़ें। इसमें भी स्वयंसेवकों ने काम प्रारंभ किया है। तो बड़ी मात्रा में और स्कूल, कॉलेज की छात्राओं को इसका प्रशिक्षण देना और फिर प्रशिक्षण की स्पर्धाएं भी आयोजित करना पिछले वर्ष से ये उपक्रम शुरू हुआ है। देश के सब राज्यों में ये शुरू होगा आगे चलकर। संघ के स्वयंसेवक इसको करते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल शाखा चलाता है, कुछ नहीं करता। लेकिन संघ के स्वयंसेवक ये करते हैं तो विद्यार्थी परिषद के द्वारा यह उपक्रम शुरू किया गया है। और उसके बड़े-बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं और यह प्रशिक्षण दिया जा रहा है। देशव्यापी ये कार्यक्रम वो चलाएंगे। अब कानून का डर अपराधियों में कम रहता है क्योंकि कानून एक हद तक चल सकता है। समाज के धाक संस्कारों का चलन इसका परिणाम ज्यादा होता है। कानून की यशस्विता समाज के मानस पर निर्भर करती है। लाल बत्ती है, लेकिन लाल बत्ती न तोड़ने वाला सामर्थ्य आ जाए तो लाल बत्ती का चलता है। इसलिए कानून तो कड़े से कड़े बनने चाहिए और उनका अमल ठीक से हो कर अपराधी को उचित सजा मिलनी चहिए। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन उसके साथ-साथ समाज भी इसकी नजर रखे। आंखों की शर्म हो लोगों में। समाज का वातावरण ऐसा हो जो अपराधों को बढ़ावा नहीं देता। ये हमारी जिम्मेदारी है। उस दृष्टि से ये संस्कार जागरण का पक्ष भी इन मामलों में उतना ही महत्व का है। हम देखते हैं कि कहीं-कहीं पांच, साढ़े पांच बजे के बाद महिलाएं बाहर जाती नहीं और कहीं-कहीं अपने देश में ऐसे इलाके हैं, ऐसे राज्य हैं जहां पर रात को भी सब अलंकार पहनकर महिला कहीं जाती है अकेली भी जाती है तो भी उसके मन में कोई भय नहीं है। ये परिणाम कानून का नहीं है, ये परिणाम वहां के वातावरण का है। उस वातावरण को हमको बनाना पड़ेगा, प्रयासपूर्वक। हम सबको उसके लिए काम करना पड़ेगा, वो करना चाहिए।
प्रश्न- यदि हिन्दुत्व की व्याख्या इतनी ही श्रेष्ठ और सुंदर है जैसे कि बताई गई तो आज विश्व और भारत के भीतर भी हिन्दुत्व को लेकर आक्रोश और हिंसा क्यों दिखाई देती है? संघ इसके लिए क्या करेगा?
उत्तर- विश्व में हिन्दुत्व को लेकर आक्रोश और हिंसा नहीं है। उल्टा है। विश्व में हिन्दुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। भारत में है, आक्रोश और भारत में जो आक्रोश है वो हिन्दुत्व विचार के कारण नहीं है, विचार को छोड़कर गत 1500, 2000 हजार वर्षों में हमने जो आचरण से एक विकृत उदाहरण प्रस्तुत किया, उसको लेकर। हमारे मूल्यबोध के अनुसार जो आचरण करना चाहिए वो न करते हुए हम पोथीनिष्ठ बन गए, रूढ़ीनिष्ठ बन गए, हमने बहुत सारा अधर्म, धर्म के नाम पर किया। तो आज की देशकाल परिस्थिति के अनुसार धर्म का आचार, धर्म का रूप बदलकर हमको उस आचरण को करना पड़ेगा तो सारा आक्रोश विलुप्त हो जाएगा। क्योंकि विचार के नाते हिन्दुत्व का विचार श्रेष्ठ, उदात्त, शुद्ध है। हमको विचार के अनुसार चलने का अभ्यास करना पड़ेगा। और संघ यही करता है। डॉ. हेडगेवार के प्रारंभ दिनों के बौद्धिक वर्ग बहुत कम उपलब्ध है, लेकिन जो एक उपलब्ध है उसमें एक तत्व और व्यवहार। उसमें डॉ. हेडगेवार ने कहा कि श्रेष्ठ तत्व केवल बोलने से क्या होता है, वैसा ही व्यवहार करके बताओ। जो तत्व व्यवहार में आप उतार नहीं सकते, वो तत्व किस काम का। और तत्व आपका श्रेष्ठ है लेकिन व्यवहार गलत है तो भी वो तत्व किस काम का। और इसलिए हिन्दुत्व के मूल्यबोध के आधार पर पहले हिन्दू अच्छा, पक्का, सच्चा हिन्दू बनें। इसके लिए संघ चलता है। हम इन्हीं संस्कारों को प्रत्येक व्यक्ति में भरने का प्रयास लगातार 92 साल से कर रहे हैं।
प्रश्न- गौरक्षा से जुड़े प्रश्न
गाय के प्रश्न पर मॉब लींचिंग क्या उचित है? गौरक्षा कैसे होगी? गौरक्षा कानून लागू नहीं होते हैं। गौ तस्करों के हौंसले बहुत बढ़े हुए हैं। गौरक्षा करने वालों पर हमले होते हैं। इन सबका क्या समाधान है।
उत्तर- गाय का क्यों, किसी भी प्रश्न पर कानून में हाथ में लेना, हिंसा करना, तोड़-फोड़ करना ये अत्यंत अनुचित अपराध है। और उस पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। अपराधियों को सजा होनी चाहिए। परंतु गाय ये परम्परागत श्रद्धा का विषय तो है ही। मानव बिन्दु माना जाता है। गाय, मैं जानवारों का डॉक्टर हूं, मैं जानता हूं शास्त्र को। उसके हवाले से कह रहा हूं। अपने देश के छोटे किसान जो बहु संख्या में हैं। उनके अर्थायाम का आधार गाय बन सकता है, दूसरा कुछ नहीं बन सकता। अनेक ढंग से वो गाय उपकारी है। अब सारी बातें बाहर आ रही हैं। ई टू मिल्क की बात होती है। पहले नहीं थी, अब मालूम हो गया है विज्ञान। तो गौरक्षा तो होनी चाहिए। संविधान का भी मार्गदर्शक तत्व है। तो उसका पालन करना चाहिए। लेकिन गौरक्षा केवल कानून से नहीं होती। गौरक्षा करने वाली देश के नागरिक गाय को पहले रखें। गाय को रखेंगे नहीं और खुला छोड़ देंगे तो उपद्रव होगा। वो गौरक्षा के बारे में आस्था पर प्रश्न उठता है। इसलिए गौसंवर्धन इसका विचार होना चाहिए। गाय के जितने सारे उपयोग हैं, सामान्य राजमर्रा के जीवन में वो कैसे आज लागू किए जाएं, कैसे तकनीकी का उपयोग करके उसको घर तक पहुंचाया जाए, इस पर बहुत लोग काम कर रहे हैं। वो गौरक्षा की बात करते हैं, वो लींचिंग करने वालों में नहीं हैं। वो समाज की भलाई के लिए काम कर रहे हैं, सात्विक प्रवृत्ति के लोग हैं। पूरा का पूरा जैन समाज इस पर तुला है और भी अनेक लोग हैं। अच्छी गौशालाएं चलाने वाले, भक्ति से चलाने वाले, मुसलमान भी अपने देश में बहुत जगह हैं। इन सब लोगों को लींचिग के साथ कभी जोड़ना नहीं चाहिए। इनके कार्य को प्रोत्साहन मिलना चाहिए क्योंकि वो अपने देश के सामान्य व्यक्ति के हित का काम है, अपने देश की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा आधार साबित हो सकता है। और इसलिए गौ तस्कर हमला करते हैं तो उसको भी अब लींचिंग पर आवाज करते हैं। और गौ तस्कर हमला करते हैं, हिंसा करते हैं उस पर आवाज नहीं होती है। ये दोगली प्रवृत्ति छोड़नी चाहिए। इन सबका समाधान यही है। गाय के बारे में लोगों में जागृति लाना। उसके क्या-क्या उपयोग हैं, हो रही है, बन रही है। और सारी बातें आजकल कागजों में मौजूद है, वैज्ञानिकों में शोध हुआ उसके डॉक्युमेंट्स उपलब्ध हैं और गौरक्षा का काम करने वाले लोग, सात्विक प्रवृत्ति से इस एक काम को बढ़ा रहे हैं, वो बढ़ेगा। जो उपद्रवी तत्व हैं, उनके साथ जोड़कर उनको देखना नहीं इतना कर लें हम और समाज को जागृत करें तो गौरक्षा का काम होगा, देश का लाभ होगा और गाय के सानिध्य का ये प्रत्यक्ष अनुभव है, हाथों से गौ सेवा करने वाले की आपराधिक प्रवृत्ति कम हो जाती है, जेल की गौशालाओं में ये प्रयोग हो चुके हैं। देश का ये अपराध वगैरह भी कम हो जाएगा। ऐसा मुझे लगता है।
प्रश्न- कन्वर्जन को लेकर प्रश्न।
क्या कन्वर्जन छल, बल, धन से हो रहा है? क्या इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनना चाहिए। अगर सभी मत पंथ समान है तो संघ कन्वर्जन का विरोध क्यों करता है।
उत्तर- एक गुलाबराव महाराज हो गए। उनको भी यही आखिरी वाला प्रश्न पूछा गया था। उन्होंने जो उत्तर दिया वो ही मैं आपको देता हूं। अगर सभी मतपंथ समान है तो कन्वर्जन की आवश्यकता क्यों है? क्यों आप इधर से उधर ले जाने का प्रयास कर रहे हो। सभी मतपंथ समान है न, तो जिसमें है वो उसमें पूर्णतः प्राप्त करेगा। तपस्या करेगा तो। आप उसको फिर भी इधर ला रहे हो तो आपका उद्देश्य उसका अध्यात्म सिखाना नहीं है। भगवान मार्केट में बेचा नहीं जाता, भगवान जबरदस्ती स्वीकार नहीं किया जाता। लेकिन छल, बल और दल से होता है। तो वो होना ही नहीं चाहिए क्योंकि उसका उद्देश्य मनुष्य की आध्यात्मि उन्नति नहीं है, दूसरे कुछ उद्देश्य छिपे हैं, आप विद्वान लोग हैं मैं उसका वर्णन क्यों करूं। आप देश-विदेश के इतिहास पढ़ लीजिए उसमें कन्वर्जन करने वालों के क्या रोल रहे हैं। इसका डाटा निकालिए, सत्य डाटा। संघ वालों ने न लिखा हुआ डाटा। संघ के विरोधी विचार रखने वालों ने भी इसके बारे में लिख है। वो देख लीजिए तो आपको पता चलेगा कि इसका विरोध क्यों करना चाहिए। संघ वाले क्यों करे, पूरे समाज में ऐसे कन्वर्जन का विरोध करना चाहिए। ये मेरा मामला है मैं किसकी पूजा करूं। मेरे मन में आता है। एक नारायण वामन तिलक थे, ब्राम्हण थे। अच्छा परिवार था, उनके मन में आ गया कि ये यीशू का रास्ता ठीक है। और उन्होंने अपने आपको इसाई बना, वो पास्टर बने। उनकी पत्नी ने अपना धर्म नहीं छोड़ा। वो बने रहे। और संघ वालों सहित सब लोग महाराष्ट्र में उनको बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। उन्होंने कन्वर्सन किया इसकी बात कोई नहीं करता। उन्होंने देशभक्ति की उत्तम-उत्तम कविताएं हमको दीं। और सात्विक जीवन का अर्थ अपने जीवन में, समाज में रखा। क्योंकि वो छल-बल से कन्वर्ट नहीं हुए थे, उनके मन में परिवर्तन आया। इसको तो मान्यता है हिन्दुओं में। लेकिन ऐसा नहीं होता है। चर्च में आने के लिए इतने रुपये देंगे, ऐसा नहीं होता है, उसका विरोध करना ही चाहिए। अध्यात्म, ये बेचने की चीज नहीं है।
प्रश्न- जनसंख्या संबंधी प्रश्न
देश के कई हिस्सों में बदलता जनसांख्यकीय स्वरूप और हिन्दू जनसंख्या के घटते वृद्धि दर को संघ कैसे देखता है? क्या जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। 50 साल बाद भारत में हिन्दुओं की स्थिति क्या होगी? जनसंख्या से क्या विकास प्रभावित हो रहा है? संघ इसे कैसे देखता है?
उत्तर- संघ का इसके बारे में प्रस्ताव है उसी का वर्णन मैं करता हूं। जनसंख्या का विचार जैसे एक बोझ के रूप में होता है। मुंह बढ़ेंगे तो खाने को तो देना ही पड़ेगा। रहने को जगह देनी पड़ेगी, पर्यावरण का उपयोग ज्यादा होगा तो है लेकिन जनसंख्या काम करने वाले हाथ भी देती है। अभी भारत तरुणों का देश है। 56 प्रतिशत तरुण है और हमको बड़ा गर्व है दुनिया में सर्वाधिक तरुण भारत में है। 30 साल बाद यही तरुण जब बूढ़े हो जायेंगे तब इनसे ज्यादा तरुणों की संख्या नहीं होगी नहीं तो भारत बूढ़ों का देश हो जायेगा जैसे आज चीन है। इसलिये जनसंख्या का विचार दोनों दृष्टि से करना चाहिए। तात्कालिक नहीं एक पचास साल का प्रोजेक्शन मन में लाकर यह सोचना चाहिए कि कितने लोगों को खिलाने की हमारी क्षमता होगी, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य यह जो गृहस्थ की आवश्यकताएं छह रहती हैं वह देने की क्षमता हमारी क्या होगी। उस समय भार हमारा पर्यावरण कितना सहन कर सकेगा। कैसे उसकी क्षमता हम बढ़ा सकते हैं। उस समय ये सारा काम करने वाले हाथ हमको कितने चाहिए और जनसंख्या चर्चा तो हम सब करते हैं जन्म देने का काम माताओं को करना पड़ता है। तो वो हमारी कितनी सक्षम है, कितनी प्रबुद्ध है, भरण पोषण की व्यवस्था उसके हाथ में कितनी है ये सारा विचार करते हुए और एक महत्व की बात दूसरे प्रश्न में जो पहले प्रश्न में ही आयी है डेमोग्रैफिक बैलेंस, अब हम इसको माने या न माने यह महत्व की चीज तो सब जगह मानी जाती है। इसकी बात न करने वाले भी लोग हैं लेकिन वह इसका महत्व भी समझते हैं। तो डेमोग्रैफिक बैलेंस भी रहना चाहिए। इसको ध्यान में रखकर एक जनसंख्या के बारे में नीति हो, अभी नीति है फिर यह देखा जाए कि यह सारा उसमें विचारित है कि नहीं, सुविचारित है कि नहीं ये पचास साल की स्थिति की कल्पना हुई क्यों, और उस नीति में जो तय होता है वह सब पर समान रूप से लागू किया जाए किसी को उसमें से छुट्टी न हो। जहां समस्या है वहां पहले उपाय हों यानी जहां बच्चों को पालन करने की क्षमता नहीं है लेकिन बहुत बच्चे हो रहे हैं, परवरिश ठीक नहीं होगी तो अच्छे नागरिक नहीं बनेंगे जहाँ नहीं है वहां लागू तो करना है सब पर लेकिन थोड़ा बाद में भी किया तो चलेगा। लेकिन ये कानून बनाकर लागू करने से स्वीकार करेंगे लोग ऐसा नहीं है। मैं स्वयं एक साल सरकारी नौकरी में था और फैमिली प्लानिंग कैम्पेन का वह पीक था। हम सब किसी भी डिपार्टमेंट के हों हमें काम करना पड़ता था। गांव गांव में जाकर मैंने इसका प्रचार किया है और देहातियों के प्रश्न सब मैंने सुने हैं। मन बनाना पड़ेगा। सबका मन बनाना पड़ेगा। धैर्य से सोचना, ठीक से सोचना, जो तय किया है उसके बारे में मन बनाना और इसको समान रूप से सब पर लागू करना ये उसके उपकार ही होंगे फायदे होंगे। और इसमें एक बात और ध्यान में रखना चाहिए कि जन्मदर एक बात है, अब हिन्दुओं का जन्मदर घट रहा है या बढ़ रहा है जो भी आप कहेंगे इसके लिए नीति जिम्मेवार केवल नहीं रहती। वह सोच भी रहती है। उचित सोच क्या हो, परिवार में संतान यदि कितनी है यह केवल देश का ही प्रश्न नहीं है। यह एक-एक परिवार का भी प्रश्न है। तो उसका संतुलित विचार कैसे करना है इसका भी प्रशिक्षण समाज को मिलना चाहिए। लेकिन दूसरी दो बाते हैं। डेमोक्रेटिक इमबेलेन्स मतांतरण के कारण भी होता है। घुसपैठ के कारण भी होता है। मतांतरण के बारे में मैं बोल चुका हूँ। घुसपैठ सीधा सीधा अपने देश की संप्रभुता को आह्वान देने वाला विषय है उसका कड़ाई से बंदोबस्त होना चाहिए।
आरक्षण का मुद्दा
प्रश्न- आरक्षण पर संघ का क्या मत है और आरक्षण कब तक जारी रहेगा। क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण को संघ मान्यता देता है। आरक्षण के कार्य में जो समाज में अनेक संघर्ष हो रहे हैं उनका हल क्या है क्या क्रीमीलेयर को आरक्षण मिलना चाहिए क्या अल्पसंख्यकों को आरक्षण मिलना चाहिए।
उत्तर- सामाजिक विषमता को हटाकर समाज में सबके लिए अवसरों की बराबरी प्राप्त हो इसलिये सामाजिक आरक्षण का प्रावधान आरक्षण में किया है। संविधान सम्मत सभी आरक्षणों को संघ का पूरा समर्थन है। बीच बीच में वक्तव्य होते हैं उन में से अर्थ निकाले जाते हैं। यह बात ध्यान में रखिये सामाजिक विषमता दूर के लिए संविधान में जितना आरक्षण दिया गया है उसको संघ का पूरा समर्थन है और रहेगा। आरक्षण कब तक चलेगा इस निर्णय जिनके लिए आरक्षण दिया गया है वही करेंगे। उनको जब लगेगा कि अब आवश्यकता नहीं है इसकी तब वो देखेंगे। लेकिन तब तक इसको जारी रहना चाहिए ऐसा संघ का बहुत सुविचारित और जब से ये प्रश्न आया है तब से मत है। उसमें बदल नहीं हुआ है। अब क्रीमीलेयर को क्या करना। और लोग मानते हैं। सामाजिक आधार पर आरक्षण संविधान में है। सम्प्रदायों के आधार पर नहीं है। क्योंकि सभी समाज कभी न कभी अग्रणी वर्गों में रहे हैं अपने यहां। तो उनके आरक्षण का क्या करना। अब और भी जातियां आरक्षण मांग रही है उनका क्या करना। इसका विचार करने के लिए संविधान ने पीठ बनाए हैं। फोरम बनाये हैं वह उनका विचार करे और उचित निर्णय दे। आरक्षण समस्या नहीं है। आरक्षण की राजनीति ये समस्या है। भई अपने समाज का एक अंग पीछे है ऐतिहासिक सामाजिक कारणों से। शरीर पूरा स्वस्थ तब कहा जाता है उसके सब अंग जब आगे जाना है तो आगे जाते हैं। मैं आगे जाने को होता हूं हाथ हिलने लगते हैं लेकिन पैर पीछे रह जाते हैं तो मुझे पैरालिटिक कहा जाता है। इसलिये उसको बराबरी में लाने की आवश्यकता है। तो समाज मे ये बराबरी कब आएगी। तो जो उपर है वो नीचे झुकेंगे और जो नीचे हैं वो उपर उठेंगे, हाथ से हाथ मिलाकर गड्डे में जो गिरे हैं उनको ऊपर लाया जाएगा। समाज को आरक्षण् का विचार इस मानसिकता से करना चाहिए। आज हमको मिल रहा है या नहीं मिल रहा है यह नहीं सोचना चाहिए। सबको मिलना चाहिए। सामाजिक कारणों से हजारों वर्षों से लगभग स्थिति है कि हमारे समाज का एक अंग पूर्णतः निर्बल हमने बना दिया है उसको ठीक करना आवश्यक है। हजारों वर्षों की बीमारी को ठीक करने में अगर हमको 100-150 साल नीचे झुककर रहना पड़ता है तो ये कोई महंगा सौदा बिल्कुल नहीं है। यह तो कर्तव्य है हमारा। ऐसा सोचकर इसका विचार करना चाहिए तो इन सारे प्रश्नों के हल मिलेंगे और इस प्रश्न को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिये। ये समाज की स्वस्थता का प्रश्न है। इसमें सबको एकमत से चलना चाहिए। ऐसा संघ को लगता है।
एससीएसटी एक्ट
प्रश्न- अत्याचार निरोध कानून पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से जो इन वर्गों की प्रतिक्रिया और आक्रोश निर्मित हुआ है क्या वह उचित था। क्या सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को संसद को बदलना चाहिए था। सवर्ण और अनुसूचित जाति में जो खाई तैयार हो गई है क्या वह ठीक है और यह कैसे दूर होगी।
उत्तर- स्वाभाविक अपने सामाजिक पिछड़ेपन के कारण और अपनी जातिगत अहंकार के कारण एक अत्याचार की परिस्थिति तो है। उस परिस्थिति से निपटने के लिए अत्याचार निरोधक कानून बना। वो ठीक से लागू होना चाहिए। उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। ये दोनों बाते हैं। ये ठीक से लागू नहीं होता, दुरुपयोग भी होता है। ये भी है। और इसलिये संघ मानता है कि उस कानून को ठीक से लागू करना चाहिए और उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। लेकिन ये होगा कैसे। ये केवल कानून से नहीं होगा। समाज की सद्भाव समाज की समरसता की भावना इसमें काम करती है। क्यों आज के युग में शिक्षा का इतना प्रसार होने के बाद भी आपको देखने के बाद मेरे मन में प्रश्न आता है कि आप कौन हैं। यानी नाम वाम मालूम है लेकिन आप कहां से आते हैं यह क्यों आता है मेरे मन में। और अत्याचार अत्याचार है। वो इस पर हुआ इसलिए जायज है उस पर हुआ तो नाजायज है ऐसा नहीं है। तो ये सद्भावना जागृत करने की बहुत आवश्यकता है। बाकी सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा? और सरकार ने क्या किया इसके बारे में मैं नहीं बोलूंगा। संघ की इच्छा यह है कि कानून का संरक्षण रहे। उसका दुरुपयोग न हो और इस समस्या को समाज में आपसी सद्भाव बढ़ाकर ठीक करना चाहिए। कानून कुछ करे न करे। कोई अस्पृश्यता कानून से नहीं आई समाज के। वह समाज के रूढ़ि के कारण आई है। शास्त्रों से भी नहीं आई है। यह हमारी दुर्भावना के कारण आई है। तो हमारी सद्भावना ही उसका प्रतिकार करने का काम कर सकेगी। उस सद्भावना को बढ़ाने का काम स्वयंसेवक ही चलायें हैं। समरसता मंच के रूप में स्वयंसेवक जो काम करते हैं सद्भावना बैठकें चलाकर इन सारी बातों को ठीक करने का उनका प्रयास रहता है।
समलैंगिकता
प्रश्न- हाल में आये फैसले के बाद धारा 377 और समलैंगिकता का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है। संघ का इस पर क्या मत है। इसके साथ ही किन्नरों की भी सामाजिक स्थिति यह एक प्रश्न है। इस पर आपका क्या विचार है।
उत्तर- समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा मानते हैं तो जाति अपने सम्प्रदाय के साथ समाज का एक अंग है। तो ये जो विशिष्टता है उसके साथ ऐसी कुछ बातें भी समाज में कुछ लोगों में है, लेकिन वो है तो समाज के अंग। उनकी व्यवस्था करने का काम ये फिर से मैं कहता हूं समाज में करना चाहिए और अपनी परम्परा में अपने समाज में ये काम हुआ है। अब समय बदला है तो अलग प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ेगी। करनी चाहिए। उसको बड़ा चर्चा जैसे वही समस्या है प्रमुख देश की इतना बनाकर हो हल्ला से काम नहीं होगा। ये सहृदयता से देखने की बाते हैं। जितना उपाय हो सकता है वैसा करना नहीं तो जैसा है वैसा करना उनकी कोई न कोई व्यवस्था बने ताकि सारा समाज स्वस्थ मन से चल सके और किसी कारण ऐसी अस्वस्थता किसी के मन में है या अलगपन है तो उसके समाज से अलग-थलग पड़ जाने का और अपने जीवन में आगे न बढ़ पाने का कारण न बने। ये इस सारे समाज को देखना पड़ेगा। समय बहुत बदला है। इसलिये इसकी सामाजिक टेकलिंग के बारे में विचार हमको करना पड़ेगा। बाकी कानून अपनी जगह शब्दों के क्या क्या अर्थ निकालकर करता है वह करता है। उसका इलाज नहीं। उसमें हम चर्चा करने जाएँगे तो बहुत सारी बातें निकलेंगी। समस्या वहीं की वहीं रहेगी। इसलिये सहृदयता से इन सब लोगों को देखते हुए और समाज स्वस्थ रहे इस तरह से उनकी व्यवस्था कैसे की जाए ताकि वो भी केवल अपने अलगपन के कारण आइसोलेट होकर किसी गर्त में न गिर जायें ये करने की आवश्यकता मुझे लगती है।
संघ के अल्पसंख्यक के प्रति
प्रश्न- अल्पसंख्यकों को जोड़ने के विषय में संघ क्या सोचता है? क्या संघ में मुस्लिम समाज को शत्रु के रूप में सम्बोधित किया गया है। क्या संघ इन विचारों से सहमत है। संघ को लेकर मुस्लिम समाज में जो भय है वह उसे कैसे दूर करेगा।
उत्तर - अल्पसंख्यक इस शब्द की परिभाषा अभी स्पष्ट नहीं है अपने यहां। जहां तक रिलीजन लैंग्वेज का सवाल है अपने देश में वह पहले से ही अनेक प्रकार हैं। लेकिन हमने कभी स्वतंत्रता के या अंग्रेजों के आने के पहले अल्पसंख्यक शब्द का उपयोग नहीं किया। हम सब एक समाज के थे। एक मान्यता लेकर चलते थे। हां ये बात जरूर है कि दूरियां बढ़ी हैं। तो मैं विचार करता हूं कि अल्पसंख्यकों को जोड़ना ऐसा नहीं है। अपने यहां समाज के बंधुओं को जो बिखर गये हैं उनको जोड़ने की बात ठीक है। भाषा भी परिणाम करती है। अल्पसंख्यक हैं आप अलग हैं हमको जुड़ना है तो जुड़ना है जुड़ने से कल्याण होगा। तो क्या कल्याण नहीं होगा तो एक दूसरे को छोड़ देंगे क्या? अरे भाई हम एक देश की संतान हैं । भाई भाई जैसा रहें। तो इसलिये अल्पसंख्यक के बारे में ही संघ के रिजर्वेशन्स है। संघ इसको नहीं मानता। सब अपने हैं। और जुड़ गये तो जोड़ना है। इस भावना से हम बोलते हैं। और मुस्लिम समाजमें इसके बारे में भय है तो कल मैंने बात की है। उस बात पर मत जाइये। आप आइये संघ को अंदर से देखिये। जहां जहां संघ की अच्छी शाखा है वहां पर यदि पास में मुसलमान बस्ती है तो मैं आपको दावे के साथ बताता हूं कि उनको यहां ज्यादा सुरक्षिता महसूस होती है। और इसलिये आप देखिये कि हमारा आह्वान राष्ट्रीयता का है। जो भारत के मुसलमानों की, ईसाइयों की सबकी परम्परा का है उसका है। उसके प्रति गौरव का है। मातृभूमि के प्रति गौरव का है वही हिन्दुत्व है। बिना कारण भय बनाकर रखना, एक बार आकर देखिये। बात करके देखिये। संघ के कार्यक्रमों में आकर देखिये, क्या क्या होता है। क्या क्या बात होती है। मेरा तो अनुभव है जो जो आते हैं उनके विचार बदल जाते हैं। आप आइये देखिये और हमारी कोई बात गलत है या आपके विरोध से प्रेरित है तो फिर हमको पूछिये। सही बात है। सही बात आपको पसंद नहीं आएगी तो भी हम बोलेंगे। परम्परा से राष्ट्रीयता से मातृभूमि से, पूर्वजों से हम सब लोग हिन्दू हैं। यह हमारा कहना है और यह हम कहते रहेंगे उस शब्द को हम क्यों नहीं छोड़ते कल मैंने बताया है। लेकिन इसका मतलब हम आपको अपना नहीं मानते ऐसा नहीं है। हम आपको अपना मानने के लिए ऐसा कह रहे हैं। किस आधार पर हम आपको अपना नहीं माने वह पंथ सम्प्रदाय नहीं है भाषा नहीं है जाति नहीं है कुछ नहीं है। मातृभूमि, संस्कृति, पूर्वज ये है। उन पर हम जोर देते हैं। उसको हम अपनी राष्ट्रीयता के घटक मानते हैं। इसलिये आकर देखिये। तो बातें जो बोली जाती हैं वह परिस्थिति विशेष प्रसंग विशेष के सम्बन्ध में बोली जाती हैं। वो शाश्वत नहीं रहती है। एक बात तो ये है कि गुरुजी के जो शाश्वत विचार हैं उनका एक संकलन प्रसिद्ध हुआ है। श्री गुरुजी विजन एंड मिशन। उसमें तात्कालिक संदर्भ से आने वाली सारी बातें हमने हटाकर उनके जो सदा काल के उपयुक्त विचार हैं वह रखे हैं। उसको आप पढ़िये। उसमें आपको मिलेंगे। दूसरी बात है कि संघ बंद संगठन है यह नहीं। डॉक्टर हेडगेवार ने कुछ बोल दिये अब उन्हीं वाक्यों को लेकर हम चलने वाले हैं। समय बदलता है संगठन की स्थिति बदलती है। हमारा सोचना भी बदलता है और बदलने की परमिशन हमको डॉ. हेडगेवार से मिलती रही है। नहीं तो डॉ. हेडगेवार पहले ही दिन बता देते कि हमको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चलाना है। शाखा शुरू करो। उन्होंने एक भी चीज नहीं बतायी। कार्य बताये। तरुण कार्यकर्ताओं ने प्रयोग किये जो उचित लगा रखा जो नहीं लगा वह नहीं रखा। और संघ ऐसे ही बढ़ते चले जा रहा है। तो आप संघ को एक बंद संगठन मानकर विचार करते हैं तो आपको मन में शंका उत्पन्न होती है। मैं कहता हूं कि आज आप संघ के कार्यकर्ता क्या क्या कर रहे हैं उसका प्रत्यक्ष अनुभव लीजिये। वो क्या सोचते हैं कैसे सोचते हैं उसका अनुभव लीजिये। आपकी सारी शंकायें दूर हो जायेंगी।
धारा 370 के सम्बन्ध में।
प्रश्न- धारा 370 तथा अनुच्छेद 35 ए के सम्बन्ध में संघ का क्या मत है। क्या जम्मू कश्मीर राज्य का तीन भागों में विभाजन होना चाहिए। घाटी के भटके हुए युवाओं को राष्ट्र भाव जगाने के लिए संघ ने क्या प्रयास किये हैं?
उत्तर- धारा 370 और 35 ए के सम्बन्ध में हमारे विचार सर्वपरिचित हैं। हम उनको नहीं मानते। नहीं रहना चाहिए। ऐसा हमारा मत है। कारण में जाउंगा तो लंबा मत है। एक वाक्य में बता देता हूं कि कई बार इसको भाषणों में हमने कहा है उसकी पुस्तिकायें भी उपलब्ध हैं। आप कभी सुरुचि प्रकाशन में जाकर उसको देख सकते हैं। वो नहीं रहना चाहिए हमारा मत है। राज्य के निर्माण, विभाजन आदि की जो बात है उसके पीछे विचार कौन सा रहता है। देश की अखण्डता, एकात्मता, सुरक्षा और प्रशासन की सुलभता। अब इसको देखकर जब लगेगा कि तीन राज्य होने चाहिए तो उस समय का शासन निर्णय करे। अगर लगता है कोई जरूरत नहीं तो रहे। लेकिन जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी अभी जो भारत के पास है कश्मीर का वो जो ग्राम कश्मीर है वह तो उधर ही है लेकिन कम से कम इन तीन में भेदभाव मुक्त सबके लिए विकासोन्मुख प्रशासन चल रहा है क्या इसका विचार करना चाहिए। वहां की जो परिस्थिति है उसमें इन राज्यों को भारत के साथ और भारत की कुल मिलाकर एकात्मता, अखण्डता, सुरक्षा के लिए क्या करना चाहिए इसका विचार करना चाहिए। वो विचार शासन प्रशासन करेगा। जैसा तय करेंगे तय करेंगे। मूल बात है प्रशासन को ऐसा होना चाहिए। सुरक्षा रहनी चहिए और सुरक्षा तब रहती है, सुरक्षा बल रहते हैं कानून रहते हैं। घटना रहती है, संविधान रहता है सब रहते हैं। लेकिन मुख्य समाज रहता है। वो समाज चाहता है। तो आपने बिल्कुल सही पूछा कि भटके युवाओं में कुछ करना चाहिये और हम कर रहे हैं। हमारे स्वयंसेवक फिर से मैं बताता हूं हम जब कहते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल शाखा चला रहा है वह कुछ नहीं कर रहा है और कुछ करना भी नहीं है हमको। ये जो हमारे में से निकले स्वयंसेवक समाज के लिए जो जो आवश्यक है वह करने के लिए दौड़ते रहते हैं। ऐसे युवकों ने वहां पर कार्य चलाये हैं। एकल विद्यालय चलाये हैं विद्यालय चलाये हैं। उसमें राष्ट्रीयता की बात होती है उसमें वंदेमातरम् होता है उसमें जनगणमन भी होता है। उसमे 26 जनवरी, 15 अगस्त भी होता है और वहां के अभिभावक और वहां के विद्यालयों में आने वाले छात्र दोनों का बहुत अच्छा सहयोग और समर्थन हमको मिलता है। धीरे धीरे ये बात बढ़ेगी क्योंकि ये प्रयास कभी हुआ नहीं इसके पहले तो अब शुरू किया है। तो उसके फल आने में समय लगेगा। लेकिन हमने इसमंे कुछ किया नहीं है ऐसा नहीं है। मैं विजयादशमी के भाषण में उसमें मैं कहता हंू कि बाकी बातें जैसे हैं उसका उपाय होना चाहिए। वैसे काश्मीर के सामान्य समाज का शेष भारत के साथ सात्मीकरण उनको मिलना मिलाना ये भी होना चाहिए। जब मैं कहता हूं तो उसके पहले काम शुरू हो चुका होता है वह मैं कहता हूं। जो शुरू नहीं हुआ उसको हम बोलते नहीं हैं। वो हो रहा है आगे बढ़ रहा है ये आप व्याप्त और पर्याप्त मजबूत होने के बाद उसको हम बोलते भी रहेंगे।
आंतरिक सुरक्षा की परिस्थिति
प्रश्न- संघ की नीति में प्रमुख आंतरिक सुरक्षा क्या है और उसका समाधान क्या है? आतंकवाद आज सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। इसका समाधान क्या है? देशद्रोह का कोई धर्म नहीं है। क्या कोई सख्त कानून नहीं होना चाहिए क्या आतंकवाद से जुड़े मुद्दों के लिए फास्ट ट्रैक नहीं होने चाहिए।
उत्तर- आंतरिक सुरक्षा में आंतरिक फसाद खड़ा करने वालों में समाज आकर्षित न हो। इसलिये समाज में विकास की धारा सर्वत्र पहुंचाना, शासन प्रशासन अपना है, जवाबदेह है, ऐसा लगना, और इस देश में अपन जीवन चल सकता है, उन्नत हो सकता है ये विश्वास उसके मन में रहना। ये काम शासन प्रशासन को भी करना होता है समाज को भी करना होता है। क्योंकि इसमें कमियों का लाभ लेकर सुरक्षा के लिए आव्हान उत्पन्न करने वाले लोग सर्वत्र हैं। यहां भी हैं। उनकी न चले इच्छा तो ये करना पड़ता है। और देश के संविधान कानून को लागू करने के वहां मामले में उसके विरोध में खुला चलने वालों का बन्दोबस्त कड़ाई से होना चाहिए। तो अपने समाज की स्थिति ये भी एक चुनौती आंतरिक सुरक्षा का विचार करते हैं तब सामने आती है। और शासन की कार्यवाही पर्याप्त सत्य हो, पर्याप्त सीधी हो, गोली से बात नहीं होगी बोली से हो सकती है और बोली इस तरफ जानी चाहिए कि भारत देश एक तरफ रहे। भारत देश अखंड रहे। इस रवैये से सबको चलना चाहिए। इसमें जो कभी कभी आगे पीछे होता है उसके परिणाम घातक होते हैं। और इसलिये सरकार की दृढ़ नीति समाज और सरकार का सब लोगों तक पहुंचना, सब तक विकास का पहुंचाना और अपनत्व का एक भरोसा सबमें उत्पन्न करना ये बात है और उसको लेकर जो कानून बने हैं और सख्त कानून आवश्यकता है ये सब मैं बात करता हूं लेकिन कानूनों के अमल में सुरक्षा को खतरा उत्पन्न करने वाले, कानून तोड़ने वाले, देशद्रोह की भाषा करने वालों की तरफ से अपने ही समाज से उनका समर्थन करने वाले खड़े न हों, यह भी आवश्यकता है। तो समाज का मन ऐसा बने कि ऐसी बात करने वाले आइसोलेट हो जायें। यह भी साथ साथ होना चाहिए। यह दोनों बात जब होती है तो फिर आन्तरिक सुरक्षा मजबूत रहती है।
समान नागरिक संहिता
प्रश्न- समान नागरिक संहिता के सम्बन्ध में संघ का क्या मत है।
उत्तर- संविधान का मार्गदर्शक तत्व तो है और इस दृष्टि से इसको कहा जाता है कि एक देश के लोग एक कानून के अंतर्गत रहें। एक कानून के अंदर रहने का मन बने समाज का। समान नागरिक संहिता की चर्चा निकालते हैं जब लोग तो उनका रूप रहता है हिंदु और मुसलमान। लेकिन केवल इतना नहीं है। सबकी परम्पराओं में कुछ न कुछ परिवर्तन आयेगा। हिन्दुओं की भी। फिर आज डायलॉग भी चलता है और मीताक्षरा भी चलता है। अपने जनजातीय बंधुओं के परम्परागत कानून भी चलते हैं। वे सब विविधता को ध्यान में रखते हुए संविधान में अनुमति है। ये सारा ध्यान में रखकर किसी एक के लिए समाज का मन बने ये प्रयास होना चाहिए और वास्तव में देश की एकात्मता को समान नागरिक संहिता की बात पुष्ट करती है लेकिन वह एकता के लिए वह उसके लागू करने से समाज में और गुट तैयार नहीं होने चाहिए इसकी चिंता करते हुए धीरे धीरे उसको लाना चाहिए, यह बात मैं भी कर रहा हूं लेकिन ऐसी ही बात अपने संविधान के मार्गदर्शक तत्वों ने संविधान में बतायी है कि सरकार इस तरफ ले जाये मामले को तो ले जाने की ये पद्धति है। सबका साकल्य से विचार करते हुए ऐसी संहिता हो उसका विचार करना समाज में उसके लिए मन बनाना और उसको लागू करना।
संघ की संविधान के प्रति आस्था
प्रश्न- नोटा के प्रावधान को संघ किस तरह देखता है। क्या अमेरिका व रूस की तरह राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली भारत में भी होनी चाहिए तथा संविधान की नीति से यदि सभी समान है तो अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान क्यों हैं।
उत्तर- संविधान सभा में चर्चा चली तो कुछ, आज जिनको हम अल्पसंख्यक कहते हैं उनके प्रतिनिधियों में भी ये बात चली थी कि अल्पसंख्यक शब्द निकाल दो आप। क्योंकि इसी बात को लेकर देश का विभाजन हुआ था और आगे और बंटना कोई नहीं चाहता। लेकिन मुझे लगता है कि ये बात संविधान निर्माताओं के मन में आती होगी कि जिनकी संख्या ऐसी कम है, उनको जरा विशेष अवसर दिये जायें। इसलिये ऐसा प्रावधान किया गया। लेकिन जैसा मैं कह रहा हूं कि अल्पसंख्यक ये शब्द बहुत संदिग्ध है तो कश्मीर में अल्पसंख्यक कौन है। देश में हर जगह अलग अलग बात है न। अब कानून में जो होगा, सो होगा तो ये न करें। ऐसी बातें निकालते हैं तो फिर से मनमुटाव शुरू हो जाता है। समाज में ये प्रयोग चलना चाहिए कि कोई अल्पसंख्यक बहुसंख्यक नहीं है। हम सब एक देश में एक-दूसरे के भाई-भाई हैं और अलग-अलग प्रकार रहना ये हमारी विशेषता है उसको साथ लेकर चलें। भाई जैसे चलें। एक मार्ग में मिलकर चलें ये होना चाहिए। बहुत करना पड़ेगा उसके लिए। अमेरिका और रूस की तरह प्रणाली की बात हम करते हैं। तो भारत की प्रणाली भारत जैसे हो, अमेरिका जैसे क्यों हो? तो भारत के सब लोग मिलकर जो तय करते हैं वैसा हो। क्यों कि कैसी प्रशासन की पद्धति लागू करने से मैं उसका लाभ लेकर अपने जीवन को बना सकता हूं ये भारत का सामान्य व्यक्ति जानता है उससे बात करनी चाहिए और जो कान्सेंसेस निकलता है वैसा ही चलना चाहिये। अभी तक तो ठीक ही चला है। सारी दुनिया यह कहती है कि अपेक्षा नहीं थी लेकिन सर्वाधिक यशस्वी प्रजातंत्र दुनिया का भारत है। अब जानने वाले, सोचने वाले लोग विचार करते हैं और कुछ रिफार्मस की बात करते हैं जरूर उस पर विचार होना चाहिए और जो स्वीकृत होता है वह करना चाहिए। इसमें हमारी भी इच्छा है, सभी की इच्छा है, हिस्सा है। तो उसके लिए सुझाव आये हैं बहुत प्रकार के। लेकिन पद्धति में ही बदलाव करो ऐसा सुझाव कहीं से नहीं आया है। चुनाव की पद्धति में सुधार करो ऐसा सुधार करो वैसा सुधार करो ऐसा आया है। ये होना चाहिये और ये यूनिफार्म होने चाहिए ऐसा मुझे लगता है। इसमें एक बात नोटा की है कि खड़े हुए पांच लोग और एक भी मेरा पसंद नहीं है। तो इसमें से कोई भी मुझे पसंद नहीं है ऐसा कहना अब एक तो बात है कि प्रजातांत्रिक राजनीतिमें हमेशा अवेलेबल बेस्ट को ही चुनना पड़ता है हंडरेड पर्सेंट बेस्ट ये बहुत कठिन बात है। आकाश पुष्प जैसी बात है। मैं आज की बात नहीं कर रहा हूं यह महाभारत के समय से है। कौरव पांडवों का युद्ध हो गया तो यादवों की सभा में चला कि किसका समर्थन करना। कुछ लोग कौरवों के पक्ष में थे और कुछ लोग पांडवों के पक्ष में थे और कौरवों के अधर्म की चर्चा चल रही थी तो लोग कह रहे थे कि पांडव कौन से धुले चावल के हैं। कोई अपनी पत्नी को दांव पर लगाता है क्या इन्होंने बहुत गलतियां की हैं। इनको कैसे धार्मिक कहा जाए। बलराम जी ने कहा कि कैसे आप चर्चा कर रहे हो और आप सबको मालूम है कि कृष्ण जो कहेगा वही करेंगे। और वो तो चुप है उसको पूछो। तो फिर कृष्ण को पूछा गया। उसके बाद कृष्ण ने फिर भाषण दिया राज्यसभा में। उसमें यहां से शुरू किया उन्होंने कि राजनीति ऐसी चीज है कि यहां तो आपको सौं प्रतिशत अच्छे लोग मिलना ये बड़ी कठिन बात है। मिल जाए तो दीनदयाल जी जैसा कोई, (यह उन्होंने नहीं कहा यह मैं कह रहा हूं) तो अच्छी बात है। लेकिन इसलिये लोगों के सामने एक ही चारा रहता है कि अवेलेवल बेस्ट को चुनो। फिर उन्होंने पाण्डवों के पक्ष में अपना मत दिया। अब जब हम नोटा करते हैं तो हम अवेलेवल बेस्ट को भी किनारे कर देते हैं और इसका लाभ जो अवेलेवल वर्स्ट हैं उनको ही मिलता है। इसलिये यद्यपि नोटा का प्रावधान है। मेरा प्रावधान है कि नोटा का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अवेलेबल बेस्ट के पक्ष में जाना चाहिए।
संघ में उसके भाजपा के रिश्ते
प्रश्न- यदि संघ और राजनीति का सम्बन्ध नहीं है तो भाजपा में संगठन मंत्री हमेशा संघ ही क्यों देता है? क्या संघ ने दूसरे दलों को या अन्य संगठनों को आज तक कभी समर्थन किया है। क्या संघ का उपयोग राजनीति में आगे बढ़ने के लिए करते हैं। धर्म जाति के आधार पर जो राजनीति चल रही है उसको लेकर संघ की क्या राय है?
राजनीति शमशान, कब्रिस्तान, भगवा आतंकवाद से कब निकलेगी।
उत्तर- संघ संगठन मंत्री जो मांगते है। उनको देता है। अभी तक और किसी ने मांगा नहीं है। मांगेगे तो विचार करेंगे। काम अच्छा है तो जरूर देंगे। क्यों कि किसी दल का समर्थन हमने किया नहीं है 93 सालों में हमने एक नीति का समर्थन जरूर किया है और हमारी नीति का समर्थन करने का लाभ जैसे हमारी शक्ति बढ़ती है वैसे राजनीतिक दलों को मिलता है, जिसको इसका लाभ मिलता है जो ले जाते हैं, जो नहीं ले जाते वे रह जाते हैं। इमरजेंसी के समय हमारा इमरजेंसी को विरोध था हमने इमरजेंसी के विरोध की नीति को किया। जो इमरजेंसी के खिलाफ लड़ा अनेक लोग थे हमने ऐसा विचार नहीं किया कि जनसंघ को लाभ मिले। उसमें बाबू जगजीवन राम भी थे। उसमें एस एम जोशी साहब, ना ग गोरे साहब भी थे। उसमें गोपालन भी मार्क्सवादी पार्टी के थे सबको लाभ मिला है। सबके लिये काम किया है स्वयंसेवकों ने। केवल एक चुनाव ऐसा हुआ था राममंदिर की नीति का हम समर्थन कर रहे थे और केवल भाजपा ही उसके पक्ष में थी तब केवल भाजपा को ही उसका लाभ मिला। वो प्रश्न होते हुए भी जब उनका अलायंस वगैरह था तो अलायंस में सबको लाभ मिला। तब नीति का पुरस्कार करते हैं। दलों का न किया है न करेंगे। अब हमारे पुरस्कार के कारण लाभ होता है तो कैसे ले जाना है यह सोचना उनका काम है। राजनीति वो करते हैं हम नहीं करते। संघ का इस्तेमाल आपने किया है यह बड़ा कठिन कर्म है यह हो नहीं सकता। संघ के द्वारा कभी नहीं होगा और आजकल है। फोटो खिंचवाते हैं। और कभी कभी अपने एप्लीकेशन में जोड़ते भी है। अब आपने यह कहा कि जहां के संगठन मंत्री आपके हैं वहां बैठे व्यक्ति स्वयंसेवक है वो जानते हैं इस फोटो का मतलब क्या होता है। लाभ नही होता उल्टा नुकसान होता है। हमने एक ऐसी कार्यपद्धति बनाई है जिसमें जो आता है वो कैसा भी हो, जैसा हमको चाहिए वैसा बनकर निकलेगा नहीं तो स्वार्थ वगैरह मन में है तो किनारे हट जाएगा लेकिन संघ के कार्य में जीवन भर रहने के बाद भी एक थैंक्यू भी कोई नहीं कहता। मिलने की बात तो दूर ही रही सब देना ही देना है। हमारे प्रांत संघचालक थे महाराष्ट्र के बाबाराव भिड़े वो स्वयंसेवकों को बताते हैं कि संघ में ‘याद्या’ करते हैं। यादी यानी सूची लिस्ट । लेकिन ‘या’ और ‘द्या’ इसको अलग किया तो इसका मतलब होता है ‘आओ और दो’। तो संघ में ‘याद्या’ का काम है लेने देने का काम नहीं है। ऐसा संघ है फिर भी बहुत विशेष चतुर बुद्धि रखने वाले एकाद दूसरे निकले तो निकले हम क्या करें। लेकिन संघ में अगर आप आओगे और ज्यादा संघ के साथ रहोगे तो यह खतरा है कि आप संघवाले बन जाओगे यह मैं आपको बताना चाहता हूं। और राजनीति लोक कल्याण के लिए चलना चाहिए। लोक कल्याण का माध्यम सत्ता है। उतनी ही सत्ता की राजनीति चलनी चाहिए। उससे ज्यादा नहीं चलनी चाहिए। यह अगर हो गया जो जयप्रकाश जी की आशा थी जो गांधीजी की आशा थी उसके अनुसार अपने देश के अनुसार राजनीतिक वर्ग के लोग चलने लगे तो ये पांचवा प्रश्न जो है ये आएगा ही नहीं। श्मशान, कब्रिस्तान, भगवा आतंकवाद ये सारी बातें होंगी नहीं। ये सारी बातें तब होती हैं जब राजनीति केवल सत्ता के लिए चलती है। सत्ता के माध्यम से लोक कल्याण के लिए नहीं चलती है। तो उस प्रकार का प्रशिक्षण वहां होने की आवश्यकता है जो लोग राजनीति में हैं वह उसका विचार करें।
आर्थिक परिस्थिति बेरोजगारी के सम्बन्ध में
प्रश्न- ग्राम विकास, स्वदेशी आधारित अर्थनीति और बेरोजगारी पर संघ की क्या राय है तथा क्या 2014 के बाद हुए विकास को संघ अपने विचारों के अनुरूप पाता है।
उत्तर - ग्राम विकास का काम तो हम करते ही हैं। गांव का विकास होना ही चाहिए। गांवों का गांवपन कायम रखकरके गांवपन यानी मनोवृत्ति का, बातों का नहीं, स्कूल नहीं हैं गांवों में ये गांव नहीं है। विकास वहां पूरा होना चाहिए। लेकिन वहां की जो वृत्ति है वहां प्रकृति के प्रति मित्रता है उसमें परस्पर सहयोग है सद्भाव है ये सारी बातें कायम रखकर गांव का विकास होना चाहिए। गांव के विकास में भारत का विकास है ऐसा हम मानते हैं और ग्राम विकास के लिए अपने स्वयंसेवक काम भी करते हैं। दिखाने लायक काम आज हमारे देश में जो संघ के प्रयासों से हुए उनकी संख्या 500 के आसपास पहुंची होगी और हम बढ़ा रहे हैं। स्वदेश आधारित अर्थनीति सबकी ही होनी चाहिए। क्योंकि अर्थनीति में अर्थसुरक्षा स्वावलंबन के आधार पर होती है तो जब तक हम स्वेदशी का अनुगमन नहीं करेंगे तब तक वास्तविक विकास होगा ही नहीं। लेकिन स्वदेशी क्या है, स्वदेशी यानी दुनिया को देश से बन्द कर लेना नहीं है। आ नो भद्राः कृतवो यन्तु विश्वतः तो जो मेरे घर में बन सकता है वह मैं बाजार से नहीं लाउंगा। मेरे गांव के बाजार में जो मिलता है उससे मेरे गांव का रोजगार बनता है मैं बाहर से नहीं लाउंगा। ऐसे क्रमशः जाते हैं तो जो अपने देश में बनता है वह बाहर से नहीं लाना। लेकिन अपने देश में बनता ही नहीं है और जीवन के लिए आवश्यक है तो बाहर से भी लाउंगा। ज्ञान की बात है, तकनीकी की बात है, पूरी दुनिया से लेंगे हम लेकिन लेने के बाद हमारे देश की प्रकृति और हमारे देश के आकांक्षा के अनुरूप उसको बदल कर लेंगे और हम प्रयास करेंगे कि उसका हमारे देश में कुछ बने। ये स्वदेशी वृत्ति है इस स्वदेशी पद्धति के बिना कोई अर्थ तंत्र अपने देश को सबल नहीं बना सकता। दुनिया पास में आई है और पास में नहीं थी तब से अंतरराष्ट्रीय व्यापार चलता है और वह लेन देन के तत्वों पर ही चलता है और वह तो चलेगा ही चलेगा। लेकिन लेन देन में केवल देन देन ही हमारे तरफ आए और लेन लेन न आए ऐसा नहीं है। तो हां लेन देन भी चलेगी लेकिन हमारी शर्तें हम मनवायेंगे। इस वृत्ति से उसको करना चाहिए। तो बिल्कुल व्यावहारिक यह बात है सब जगह चलेगी तभी देश बलवान होगा। अब 2014 के बाद ऐसा हुआ है क्या तो आप यह विचार कीजिये कि किसी भी, आप 2014 की बात कीजिये, 1947 में ऐसा हुआ है क्या आप ऐसा भी पूछो। मेरा उत्तर एक ही है कि ये जो आदर्श की बात है जमीन पर उतारने की बात है। एक परिस्थिति जो विरासत में मिली है उसको लेकर उनको काम करना पड़ेगा। मान लीजिये सरकार आ गई आओ चलो अब स्वदेशी लागू करनी है और तिजोरी खोलकर देखते हैं तो उसमें एक पैसा नहीं है। तो कहीं से तो पैसा लाना पड़ेगा पहले उसका प्रावधान करना होगा तब स्वदेशी में आगे बढ़ सकते हैं। और इसलिये 1947 हो, 1952 हो, 1957 हो कोई भी साल लीजिये 100 प्रतिशत उसमें कोई आगे गया क्या? शासन-प्रशासन की चौखट में आज की तारीख में एकदम यह संभव नहीं होता है परन्तु उस दिशा में हुआ है क्या? हां उस दिशा में हुआ है ऐसा मुझे लगता है क्योंकि समाज में हवा बदली है। आज हमारे देश के ज्यादातर लोग समझ रहे हैं कि हम अपने देश में बनाएंगे। आज हमारे देश की कंपनियां स्पर्द्धा करने के लिए आगे जा रही हैं। रामदेव बाबा जैसे संत भी आगे जा रहे हैं। उद्यमिता बढ़ी है स्किल ट्रेनिंग बढ़ा है। विदेशों में जाकर शिक्षा लेकर वापस आकर काम कर रहे हैं। खेती में काम कर रहे हैं। स्किल ट्रेनिंग में काम कर रहे हैं तो कुछ आशा बनी है। देश अपने पैरों पर खड़ा करना है इसलिये तो हुआ है और आशा बनी है। वह हमारे भाषणों से थोड़े ही बनी है। उसको जो अनुभव आ रहे हैं उसके कारण बनी है। तो हम ऐसा कह सकते हैं कि सौ प्रतिशत ऐसा हो नहीं सकता। जब होगा तो सुवर्ण दिन होगा। लेकिन आज की तारीख में यह तो कह सकते हैं कि हां इस दिशा में अपने देश ने कदम तो बढ़ाये हैं।
राम मंदिर के सम्बन्ध में
प्रश्न- आस्था का प्रश्न राममंदिर का है। क्या इस विषय पर शाह प्रकरण की भांति अध्यादेश लाया जा सकता है। और या फिर संघ के इस व्याख्यान माला के आयोजन की भांति किसी बड़े सामाजिक संवाद का आयोजन किया जा सकता है।
उत्तर- अब अध्यादेश का मामला सरकार के पास है और आयोजन का मामला रामजन्मभूमि मुक्ति संघर्ष समिति के पास है। दोनों में मैं नहीं हूं। तो आन्दोलन में क्या करना है वह उच्चाधिकार समिति है वह तय करती है। वह पूछेगी सलाह तो मैं बताउंगा। हा जरूर संवाद करना चाहिए ऐसा मेरा मत है। करते भी हैं नहीं करते हैं ऐसा नहीं है। अध्यादेश लाना है कि नहीं लाना, कानून ला सकते हैं क्या? अध्यादेश लाने के बाद उसको चुनौती नहीं मिलेगी यह पक्का है क्या? चुनौती मिलने के बाद यह कहा जाएगा कि चुनाव के चलते यह काम किया गया है? ये सब उनके सोचने की बाते हैं। मैं नहीं, मैं चाहता हूं संघ के स्वयंसेवक के नाते, संघ के सरसंघचालक के नाते और रामजन्मभूमि आन्दोलन के हिस्से के नाते कि रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर जल्दी बनना चाहिए। राम भगवान राम अपने देश के बहुसंख्य लोगों के लिए भगवान हैं, लेकिन वह केवल भगवान नहीं हैं। अपने देश में अन्य लोग भी ऐसे हैं जो भगवान को नहीं मानते लेकिन उनको आचरण की भारतीय मर्यादा के जनक मानते हैं। उनको इमामे हिन्द मानते हैं। और इसलिये समाज के सभी वर्गों में एक आस्था जुड़ी है और जहाँ राम की जन्मभूमि थी, बहुत राम के मंदिर हैं और बहुत टूटे भी हैं लेकिन सबकी बात नहीं उठाते। जहां उनका जन्म हुआ वहां मंदिर होना चाहिए। वहां मंदिर पहले था यह लेजर किरणों से देखा गया है। और अगर ये हो गया तो हिन्दू और मुसलमानों के बीच झगड़े का एक बड़ा कारण समाप्त हो जायेगा। और ये सदभावना से हो गया तो मुसलमानों के उपर बार-बार उंगली उठती है उसमें बहुत कमी आ जाएगी। देश के एकता को और देश के आदर्शों को पुष्ट करने वाली बात है और करोड़ों लोगों के आस्था का ये सवाल है। तो इसको इतना लटकना ही नहीं चाहिए था। देश हित की बुद्धि से विचार होता राजनीति इसमें नहीं आती तो इसको पहले ही बन जाना था। खैर देर आए दुरुस्त आये रामजन्मभूमि में भव्य राममंदिर का निर्माण जिस किसी उपाय से हो सकता है शीघ्र होना चाहिये। यह मेरा मानना है।
हिन्दू त्यौहारों में परंपराओं का विरोध
प्रश्न- पर्यावरण के नाम पर हिंदू त्यौहारों में परंपराओं का विरोध करने का जो प्रचलन चल पड़ा है इस पर संघ का क्या मत है?
उत्तर- ऐसे किसी नाम पर किसी बात को करना यह तो गलत ही है न। जो करना है वह सीधा सीधा करना चाहिए। पर्यावरण के नाम पर त्यौहारों का विरोध तो सही है बहुत से लोगों के बहुत से त्यौहार ऐसे हैं हां लेकिन वास्तव में कोई पर्यावरण का प्रश्न है चर्चा होनी चाहिए। त्यौंहारों के कर्मकाण्ड ये कोई हिन्दुत्व के लिए कम्पलसरी बात नहीं है वह बदलते रहे हैं। अब वटसावित्री के दिन महिलायें गांव गांव में शहरों में भी जाकर वट को सूत बांधती थी। अब बम्बई जैसे, कलकत्ता जैसे शहर में वट ही नहीं है। तो अब क्या हुआ उसकी डालियां तोड़कर लाते हैं और उसको बेचते हैं और अब यह डालियां लाते हैं। उसको पूजते हैं। अब यह धर्म सम्मत है क्या? अरे धर्मसम्मत नहीं है, वह प्रतीक है संस्कार का तो कुछ तो करना पड़ता है समाधान हां हमने वट वृक्ष की पूजा की, होना पड़ता है तो हमने डाली की पूजा की। यह बदलता है देश काल और परिस्थिति के अनुसार। तो उस बदलने के लिए भी संकोच नहीं करना चाहिए। पटाखों की बात है। आपको पता है कि पहले पटाखे बनते थे वह मिलावट के नहीं बनते थे वह शुद्ध बारूद के बनते थे। और खेती का सारा काम होने के बाद, वर्षा के बाद जो कीड़े बनते थे, तकलीफ देते थे सबको, इन पटाखों के धुएं के कारण सबको नियंत्रण हो जाता था। ये उसका उपयोग था। आज भी है क्या उसका उपयोग यह देखने की बात है। आज नहीं है उसका उपयोग। उपद्रव है बदलो। लेकिन सीधा कौन है? और फिर केवल हिन्दुओं के त्यौहारों पर ही क्यों, सबका परीक्षण ऐसा करो, देश काल परिस्थिति के अनुसार बदलो। कर्मकाण्ड कोई ध्रुव रेखा नहीं है वह बदलती रहती है। इसमें हिन्दुओं में मनाही नहीं है। और आप घर में विचार करो, योग्य विचार करो और जाकर लोगों को बताओ कि मैं विद्वान हूं मैं कहता हूं बदल दो, ऐस मत करो। समाज मन को बदलना पड़ता है। समझाओ अनुनय करो, बात करते समय हिन्दू समाज की आस्था ऐसा क्यों कहते हो आप यह कहो कि पर्यावरण के लिए खतरा है और हिन्दुओं में सुधार की परम्परा है तो फिर मिलकर विचार करना चाहिए तो लोग मानेंगे न। जिस ढंग से यह किया जाता है वह ढंग मन में शंकायें पैदा करता है। और वास्तव में अगर यह उद्देश्य है तो वह नहीं करना चाहिए और कुछ सदुद्देश्य है तो अपना सदुद्देश्य लोगों के ध्यान में आए इस तरह से करना है तो हमारे धर्माचार्य भी इसका विचार करेंगे क्यों नहीं करेंगे।
संघ की कार्यपद्धति व रीति नीति
प्रश्न- संघ में कहा जाता है कि सूचना मिली तो सोचना बंद। क्या यह तानाशाही नहीं है। संघ में सरसंघचालक का चुनाव क्यों नहीं होता है। क्या संघ का पंजीकरण है। क्या संघ के हिसाब किताब का आडिट होता है। हिन्दू धर्म की रक्षा में सिक्खों का बड़ा योगदान रहा है। संघ केवल महाराणा प्रताप और शिवाजी महाराज का ही गुणगान करता है ऐसा क्यों है तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ युवाओं को दिशा देने के लिए क्या कर रहा है?
उत्तर- अभी मैंने कहा चतुर्वेदा पूराणानी उसमें गुरुग्रन्थ का भी नाम लिया है न। जहां से कहा मैंने वह सुबह हम कहते हैं। उसमें गुरुनानक साहब और गुरु महाराज का नाम सुबह लेते हैं। प्रातः स्मरण में एकात्मता से। राजा भाउ पातुरकर पंजाब प्रांत के प्रचारक रहे वहां से आने के बाद और ये जो सारा सिक्खों का बलिदानी इतिहास है गौरवपूर्ण उसकी चित्र प्रदर्शनी लगाकर उन्होंने सारे देश में प्रांतों में घुमाई तो वो सबके गुरु हैं। वो किसी सिक्ख पंथ के गुरु नही हैं। सिक्ख पंथ में हो गये लेकिन देश दुनिया के लिए हमारे सब गुरु ऐसे हैं और हम सबका सम्मान करते हैं। अभी दिल्ली में ही मैंने इस पर भाषण दिया है इस पर वह आपके पास आया होगा। तो हम उसको अलग नहीं मानते यह हम सबका इतिहास है। सिक्ख बंधुओं का गौरवमयी इतिहास के कारण आदर करते हैं और विशेष संत मानकर उनके गुरुओं को देखते हैं यह हमारा मन है। अब संघ पंजीकृत क्यों नहीं है क्योंकि जब संघ शुरू हुआ था तो स्वतंत्र भारत की सरकार नहीं थी। 1925 की बात है। तो चला और चल पड़ा स्वतंत्रता के बाद भी चलता पड़ा और स्वतंत्रता के बाद के कानूनों में हर एक संस्था ने रजिस्ट्रेशन करना चाहिये था ऐसा कानून है और संघ का एक स्टेटस है उसके तहत हम चल रहे हैं। उस स्टेटस के आधार पर कानूनन हमको टैक्स नहीं है। इसलिये हिसाब किताब हमारा मांगती नहीं है सरकार। लेकिन हमको हमारी शाखा को जतन करना है, एक-एक पाई का हिसाब हम रखते हैं। प्रतिवर्ष हम ऑडिट करते हैं, ऑडिट के नियमों के अनुसार हमारा प्रत्येक इकॉनॉमिक यूनिट का ऑडिट प्रतिवर्ष नियमित होता है। इसमें कोई नर्मी हम बरतते नहीं है। और अगर सरकार कभी मांग लेगी, लाओ हिसाब तो हमारा हिसाब तैयार है। हम कानून को मानकर चलने वाले लोग हैं। जो कुछ है वो कानूनन है। और हिसाब-किताब का ऑडिट होता है। इंटरर्नल ऑडिट होता है, इंटरर्नल ऑडिट करने के लिए हम चार्टर्ड एकाउंटेंट बाहर के उनको हम नियुक्त करते हैं। और बाकायदा वो जो फोर्मेट है उसके अनुसार हमारा हिसाब-किबात रखा जाता है। बैंक खाता के द्वारा सब व्यवहार चलता है। कोई ऐसा पैसा हम इधर से उधर हम कभी करते नहीं।
अब सरसंघचालक का चुनाव क्यों नहीं होता, क्योंकि सरसंघचालक डॉ. हेगडेवार रहे हैं, उसके बाद गुरुजी रहे, ऐसे लोग रहे हैं। इसलिए वो श्रद्धा का स्थान है। उसकी नियुक्ति, मेरे बाद सरसंघचालक कौन होगा, ये मेरे मर्जी पर है और मैं सरसंघचालक कब तक रहूंगा, ये भी मेरे मर्जी पर है। लेकिन मैं ऐसा हूं तो संघ ने एक होशियारी बरती कि मेरा अधिकार संघ में क्या है, कुछ नहीं है। मैं केवल फ्रेंड, गाइड एंड फिलॉसफर हूं। सरसंघचालक को और कुछ करने का अधिकार नहीं है। संघ का चीफ एग्जीक्युटिव अधिकारी सरकार्यवाह है। उसके हाथ में सब अधिकार है, वो अगर मुझे कहेगा कि ये बंद करो और तुरंत नागपुर चलो तो अभी मुझे उठकर जाना पड़ेगा। और वो जो है उसका चुनाव विधिवत प्रति 3 साल होता है। संघ ने सरकार को अपना लिखित संविधान दिया तब से आज तक हमारा एक भी चुनाव, एक दिन भी पोस्टपोंड नहीं हुआ है। नीचे शाखाएं प्रांतों को प्रतिनिधि बनाती हैं और अन्य स्तर के संघ चालकों का चुनाव जिला और क्षेत्र के प्रांत के होता है। और अखिल भारतीय प्रतिनिधि चुने जाते हैं वो हर तीन साल में सरकार्यवाह को चुनते हैं। ये प्रक्रिया हमारे यहां विधिवत उसके भाव को पूर्व ध्यान में रखकर एकदम ठीक से होती है। सबसे नियमित चुनाव वाला संगठन, शायद दुनियां में भी संघ है। केवल जब संघ पर प्रतिबंध था, उस समय चुनाव का वर्ष एमरजेंसी में आया था। उस साल चुनाव नहीं हुए, लेकिन काम प्रति सभा बंदी उठने के बाद जो पहली हुई उसमें हमने चुनाव करवाया। हम इस मामले में बहुत नियमित हैं और सूचना मिली तो सूचनाबंध ये बात सही है। लेकिन सूचना मिलने के पहले का मामला इसमें नहीं है। सूचना बहुत चर्चा के बाद ही मिलती है। अब मैं ये दो दिन का भाषण दे रहा हूं। मैं अपना एक्सटेम्पोर दे रहा हूं। आपको लगता है कि मेरे मन से मैं बोल रहा हूं, मैंने इसके पहले सब प्रमुख अधिकारियों से, इसमें क्या रखना, क्या नहीं रखना, इसकी चर्चा की है। मैंने कहा कि ये रखूंगा तो वो उनका नहीं-नहीं इसकी जरूरत नहीं है। और मैं जो बोल रहा हूं वो संघ की सहमति बोल रही है। अब मेरे इस बोलने का संघ में कोई प्रतिपाद नहीं करेगा। सूचना मिली, सोचना बंद, लेकिन सूचना के पहले बहुत सोचना हो गया। और मेरा अपना विचार कुछ भी रहे, मैं उस सोचने के अनुसार बोल रहा हूं। ये संघ की पद्धति है। आपको लगता है आप में सिरफुटव्वल होना, ये डेमोक्रेसी है। अरे डेमोक्रेसी का ऐसेंस है सर्वसहमति। जैसे अपना संविधान बना, संघ में हर बात ऐसे ही सर्वसहमति बनाकर होती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सूचना हो गई, सोचना बंद। किसी आदमी को कहो आप वो करेगा क्या, नहीं करेगा। ये हो नहीं सकता, सोचना बंद नहीं कर सकते आप। कब कर सकते हैं, जब सबका विचार लेकर एक समन्वित सर्वसहमति बनी रहे। हम करते हैं इसलिए हम ऐसा कह सकते हैं ऐसा कहने पर उसका पालन भी होता है, वो मन से होता है तानाशाह के कारण नहीं होता है।
समापन सत्र - श्री मोहन भागवत जी
बस तीन-चार छोटी बातें कहनी हैं। क्योंकि कल दो भाषण मैं पहले ही दे चुका और प्रश्नों के उत्तर भी दे चुका हूं। पहली बात है संघ के बारे में कौन, क्या कहता है इस पर विश्वास मत रखिए। अब चाहते तो मैंने जो बोला उस पर भी विश्वास मत रखिए। आप आप संघ को अंदर से देखिए। और फिर संघ के बारे में अपना जो मत बनाना है वो बनाइए। मैं ये नहीं कहता कि आप कन्वेंस होइए, कन्वेंस होने के लिए मैंने कुछ कहा नहीं। वो आपका करना है, लेकिन संघ को पहले निकट से देखिए, समझ लीजिए। और फिर आपको जो कहना है कहिए, आपको जो करना है वो आप कीजिए।
ये जो उपक्रम हमारा चला उसमें कन्वेंस करने की बात नहीं थी, हम फेक्ट्स बताना चाहते हैं और जो फेक्ट्स है वही मैंने बताए हैं। अब इसके बाद अगर आप में से किसी की इच्छा हुई कि संघ के कार्य में प्रत्यक्ष जुड़ेंगे। शाखा में जाइए, नहीं शाखा में जाना नहीं होगा मेरा। तो ठीक है। संघ के स्वयंसेवक अनेक अच्छे काम करते हैं, उसमें जुड़िये। समाज परिवर्तन के काम करते हैं। सब प्रकार के क्षेत्रों में काम करते हैं उसमें आप जुड़ सकते हैं।
नहीं लेकिन यहां संघ के स्वयंसेवकों से मिलकर मैंने एक अच्छा काम चलाया, वही मैं करना चाहता हूं, जरूर कीजिए। नहीं मैं किसी से जुड़ना नहीं चाहता, मैं अपना काम करूंगा, जरूर कीजिए। बस हमारी एक ही अपेक्षा है, आप निष्क्रिय मत रहिए, इसके बाद। जैसे भी आपको समझ में आता है। इस राष्ट्र को अपने स्वत्व पर खड़ा करने के लिए और परम वैभव सम्पन्न बनाने के लिए इस राष्ट्र को समझकर सारे देश को एक करने की दिशा में जो भी छोटा-बड़ा काम आप अपने पद्धति से करना चाहते हैं, वो कीजिए। जहां संघ वहां उनकी जितनी ताकत है वो उतना आपको सहायता वो जरूर करेंगे। केवल आपको सम्पर्क रखना पड़ेगा। कई लोगों को लगता है कि मुझे कहने से हो जाएगा। संघ में उल्टा है, ऊपर से काम नहीं होता है, जमीन पर जो है, उनके साथ आप सम्पर्क रखो, आपको पेढ़ी भी ऊपर आने की जरूरत नहीं पड़ेगा। वहीं परस्पर सब हो जायेगा। तो आप स्थानीय तौर पर सम्पर्क रखें। आपको सहायता होगी, और हमको भी आपसे कोई सहायता चाहिए तो मांगने के लिए हमारा परिचय रहेगा। हमारी जितनी शक्ति है हम करेंगे, आपकी जितनी शक्ति है आप करो। लेकिन इस देश को हमको खड़ा करना है। क्योंकि सम्पूर्ण दुनियां को आज एक तीसरा रास्ता चाहिए। और दुनिया जानती है, हम भी जानें कि तीसरा रास्ता देने की अंतरनिहित शक्ति केवल और केवल भारत की है। ये भारत हित का काम है क्योंकि हम भारत में हैं और भारत के नागरिक है, ये मेरे आपके व्यक्तिगत और पारिवारिक हित का भी काम है। और ये दुनियां के कल्याण का काम है। इसको नहीं करेंगे तो तीनों पर खतरा है, हम जागें, भारत का यह कर्तव्य है। भारत ने जब-जब दुनियां में पदार्पण किया किसी को जीतने के लिए नहीं किया सबके हृदय जीते और सब जगह जो था उससे अच्छा किया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ अपने गीत में कहते हैं ए हमार देश जेदिन तोमाय बोइभो मोय भाण्डार ओबेझी कोई विश्व जनाए शकोल कामना पूरण करे शिव महादीनरे महाइतिहास नित्य वर्ण जुवर्ण करि। हे महान देश हे हमारे महान देश जिस दिन तुम अकूत ज्ञान भण्डार और सम्पत्ति भण्डार सारे विश्व के लिए खुला हो गया और उन सकल लोगों की कामना पूर्ण करने लगा उस महादिन का स्मरण करो, उसको अपने जीवन में वरण करो। ये आवाह्न साक्षात अपने सामने खड़ा है, उसको पूरा करने की ताकत हमको समाज की बनानी पड़ेगी। और इसके लिए समाज को जोड़ने वाला एकमात्र सूत्र जो है उसका आलम्बन ले कर सम्पूर्ण समाज को इससे जोड़ना पड़ेगा। अपने कर्तव्यबोध पर खड़ा करना पड़ेगा। और उनके गुणवत्ता को बढ़ाकर उनके सामूहिक प्रयास को आगे बढ़ाना पड़ेगा। ये अत्यंत पवित्र कार्य है। सारे दुनिया के जीवन में एक अर्थ और समृद्धि उत्पन्न करने वाला ये काम है। ये हम सबको करना है, करना ही है क्योंकि हम भारत माता के पुत्र कहलाते हैं, हम भारत देश के नागरिक कहलाते हैं। भारत का अस्तित्व ही इस प्रयोजन के कारण उत्पन्न हुआ है। आप कल्पना करो ये सत्य मिलने के बाद, हमारे उस समय के पूर्वजों ने कितना परिश्रम किया होगा। गांव-गांव में, झोपड़ी-झोपड़ी तक ये अपने देश का स्वभाव इस स्तर तक पहुंचा है। घुमंतु जमात की बात निकली, ये घुमंतु लोग कौन हैं जिन लोगों स्वेच्छा से अपने जीवन का ये संदेश सबके जीवन में उतारने के लिए घर, गांव छोड़ दिया। एक जगह रहना अस्वीकार करके, घुमंतु जीवन स्वीकार करके प्रचार वो गांव-गांव करने वाले लोग हैं। जमाना बदल गया, उनके शास्त्र हमारे ध्यान में नहीं आते लेकिन एक जमात है जो कसरत करती है और डोंबारी कहते हैं उनको। वो फिजिकल कल्चर का समाज में प्रचार करने वाले लोग थे। जड़ी बूटी को जानने वाले लोग थे। धातु कला उस समय प्रकर्ष उस समय धातु युग था। तो धातु का काम सिखाने वाले, सीखने वाले लोग थे। ऐसे कई प्रकार है उनमें और आज भी वो लोग जाते है ये काम करने के लिए तो घर में परम्परागत विचार करके जाते हैं। ये क्यों, ये छोड़ दो आज के जमाने में नहीं चलेगा, ऐसा कहना है तो बहुत बार उत्तर मिलता है ये हमारा धर्म है। इतना परिश्रम करना ये देश बना है दुनियां के लिए। उसका ईश्वर प्रदीप्त कर्तव्य पूर्ण करने के लायक उसको होना चाहिए। इसलिए ये बात हम करते हैं। आपको ये सब बताने के पीछे संघ के बारे में गलतफहमियां ठीक हों ये तो है ही, लेकिन अकेला संघ बड़ा हो गया तो कौन-सी बड़ी बात है। इतिहास में हम ये लिखा देना नहीं चाहते कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण देश का उद्धार हुआ। हम ये लिखा देना चाहते हैं कि इस देश में एक ऐसी पीढ़ी निर्माण हुई, उन्होंने उद्यम किया और अपने देश को पूरी दुनियां का गुरु बनाया। उस पवित्र कर्तव्य के प्रारम्भ के लिए मैं आपका आवाह्न करता हूं। और इन दो दिनों में आपने बहुत धेर्य से सुना लम्बा-लम्बा भाषण। मैंने प्रश्नों के उत्तर दिये वो आपने सुने उसमें कुछ चूक भूल रही हो तो आप सबसे क्षमा मांगता हुआ कर्तव्य का हम बोध जागृत करें। सारे समाज में इस एक बात को कहता हुआ और मेरा निवेदन समाप्त करता हूं बहुत-बहुत धन्यवाद।
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